ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
बोले इतने तुम शोकाकुल, पर बातें ज्ञान भरी करते।
पर मरे हुए या जीवित की, चिन्ता न ज्ञानी जन रखते।।११।।
हम तुम अथवा ये राजागण, जग में क्या पहले नहीं रहे?
या मर कर फिर न होवेंगे, यह कथन उचित न कौन कहे।।१२।।
ज्यों शैशव यौवन और जरा, तन में आत्मा तजता जाता।
वैसे ही देह बदलता है, न धीर मोह को है पाता।।१३।।
सरदी, गर्मी, सुख और दुःख विषयों से ही होते अर्जुन।
ये असत् और क्षण भंगुर हैं, इनको सहना पड़ता, लो सुन।।१४।।
हे पुरुष श्रेष्ठ, इन विषयों की पीड़ा ना जिन्हें सताती है।
सुख-दुःख में सम जो धीर पुरुष, बस उन्हें मुक्ति मिल पाती है।।१५।।
न असत् कभी शाश्वत होगा, न सत् मिट सकता कभी कहीं।
दोनों तत्वों को जो जाने, ज्ञानी कहलाता सदा वही।।१६।।
सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त सदा, आत्मा होता न नाशवान।
अव्यय को नष्ट करे कोई, ऐसा न जग में शक्तिवान।।१७।।
अर्जुन, आत्मा अविनाशी है, वह अप्रमेय सबके तन में।
केवल शरीर ही मिटता है, इस कारण युद्ध करो रण में।।१८
का ह
हर्त्तां है।
वे मूढ़ जानते भेद नहीं, मारता नहीं, न मरता है।।१९।।
अज, शाश्वत, नित्य पुरातन यह, न जन्म लिया, न कभी मरण।
होकर फिर होने वाला न, बस तन का करता परिवर्तन ।।२०।।
अविनाशी, अज, अव्यय, अक्षर, ऐसा जो इसे जानते हैं।
कैसे किसको मरवाते हैं, या कैसे किसे मारते हैं।।२१।।
ज्यों त्याग पुराने वस्त्रों को, प्राणी नवीन करता धारण।
जीवात्मा नूतन काया में आता, त्यों छोड पुराना तन।।२२।।
ना शस्त्र काट सकते इसको, ना जला सकेगा कभी अनल।
ना पवन कभी शोषक होता, न सकता है यह जल में गल।।२३।।
कटता, जलता यह नहीं कभी, न कहीं सूखता-गलता है।
स्थाणु, अचल, सर्वव्यापी, यह नित्य सनातन रहता है।।२४।।
आत्मा अचिन्त्य, जग में इसका, होता स्वरूप न कभी व्यक्त।
अर्जुन, यह ऐसा अविकारी, फिर क्यों करते हो शोक व्यर्थ।।२५।।
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