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श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।


जो सर्वव्याप्त परमेश्वर है, जिससे सबकी उत्पत्ति हुई।
पूजे उसको रत हो स्वधर्म, उसको ही समझो सिद्धि हुई।।४६।।
गुणहीन किन्तु निज धर्म श्रेष्ठ, पर धर्मों का आचरण न कर।
इससे न पाप पैदा होता, यदि नियत कर्म करता है नर।।४७।।
कौन्तेय, कर्म निज दोष युक्त, दिखता पर छोड़ो नहीं कभी।
ज्यों आग धुयें से वैसे ही, हैं ढँके दोष से कर्म सभी।।४८।।
कुछ पाने की अभिलाषा ना, तन वश में, ना आसक्ति बुद्धि।
संन्यास-योग द्वारा उनको मिल जाती है निष्कर्म सिद्धि।।४९।।
यह सिद्धि प्राप्त करने वाले फिर परब्रह्म को पाते हैं।
इसको ही कहते चरम ज्ञान, इसका स्वरूप समझाते हैं।।५०।।
शब्दादिक विषयों को तजकर, धीरज से मन वश में करके।
सब राग-द्वेष को नष्ट करे, जो शुद्ध बुद्धि अपनी रख के।।५१।।
एकान्त वास, मित आहारी, तन, मन, वाणी रखता वश में।
फिर ध्यान योग का आश्रय ले, वैराग्य सदा होता उसमें।।५२।।
जो अहंकार, बल, काम, क्रोध, ममता, घमण्ड को तजता है।
संग्रही नहीं, हो शांत चित्त, सच्चिदानन्द में रमता है।।५३।।
जब ब्रह्म रूप हो सुखी हुआ, ना शोक रहा, ना इच्छायें।
सब प्राणी उसे समान लगें, तब परा भक्ति को वह पायें।।५४।।
यह पराभक्ति मिलती जिसको, वह मेरा तत्व समझ पाता।
फिर तत्व जान करके मेरा, वह जन मुझमें ही मिल जाता।।५५।।'
मेरा आश्रित होकर जो जन, सब कर्म जगत के करता है।
वह मेरा कृपा पात्र जन ही, शाश्वत अव्यय पद लहता है।।५६।।
निष्काम कर्म योगी बन कर सब मुझे समर्पित कर्म करो।
तुम बुद्धि योग का आश्रय ले मन में मेरा ही ध्यान धरो।।५७।।
मुझ में मन लगा, कृपा पाकर सब विघ्नों से तर जायेगा।
अभिमानी ना उपदेश सुना तो शीघ्र नष्ट हो जायेगा।।५८।।
 ''मैं युद्ध करुँगा नहीं''- कह रहे अहंकार का ले आश्रय।
तव क्षात्र धर्म लड़वायेगा, अर्जुन है यह मिथ्या निश्चय।।५९।।
तुम हो स्वभाव से बँधे हुए कौन्तेय तुम्हें लड़ना ही है।
जो नहीं कर रहे मोहग्रस्त हो कर्म वही करना ही है।।६०।।

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