ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
शुभ-अशुभ कर्म का भेद नहीं, जो बता सके कुन्ती नन्दन।
ना धर्म-पाप समझा पाये, राजसी बुद्धि समझो निज मन।।३१।।
जिसके द्वारा सारे अधर्म ही धर्म दिखायी पड़ते हैं।
हे पार्थ, कार्य विपरीत सभी, वह बुद्धि तामसी कहते हैं।।३२।।
जिससे इन्द्रिय, मन, प्राण सभी, सम हो कार्यों को करते हैं।
ऐसे अविचल धीरज को ही, सात्विकी धैर्य कह सकते हैं।।३३।।
जो धर्म, अर्थ, कामादिक के, फल में मन को भटकाता है।
तुम सुनो धनंजय धीरज वह, राजसी धैर्य कहलाता है।।३४।।
भय, शोक, नींद, चिन्ता, घमण्ड, जब नहीं छोड़ पाता है जन।
रखता है उर में मूढ़भाव, तामसी धैर्य कुंतीनन्दन।।३५।।
सुख होते तीन तरह के हैं, हे भरत श्रेष्ठ सुनिये मुझसे।
अभ्यास सहित यदि रमण करे, हो जाता छुटकारा दुख से।।३६।।
जो पहले तो विष तुल्य लगे, परिणाम किन्तु अमृत सम हो।
जो उपजे आत्म-ज्ञान द्वारा उसको सात्विक सुख सदा कहो।।३७।।
पहले हो सुधा-सरिस लेकिन परिणाम अन्त में विषमय हो।
हो विषय-इन्द्रियों से उद्भव, सुख उसे राजसी पार्थ कहो।।३८।।
जो आदि-अन्त दोनों में ही आत्मा को मूढ़ बनाता है।
निद्रा, प्रमाद, आलस्य जनित वह तामस सुख कहलाता है।।३९।।
पृथ्वी पर, स्वर्ग लोक में या सारे देवों में और कहीं।
बच सके गुणों से जो अर्जुन, ऐसी है कोई वस्तु नहीं।।४०।।
द्विज, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, चारों के अलग-अलग जो कर्म कहे।
ये तीन गुणों से उपजे हैं, उनके स्वभाव भी अलग रहे।।४१।।
मन-निग्रह, इन्द्रिय दमन, क्षमा, शुचिता, ऋजुता विज्ञान-ज्ञान।
आस्तिकता हो, तप में निष्ठा ये स्वाभाविक द्विज-कर्म जान।।४२।।
चतुराई, शौर्य, तेज, धीरज, ना रण से कभी पलायन हो।
हो दान-वृत्ति, ऐश्वर्य भाव, स्वाभाविक क्षत्रिय कर्म कहो।।४३।।
खेती, गो-रक्षा और बनिज, ये वैश्य-कर्म हैं कहलाते।
इन तीनों की सेवा करना, शूद्रों के कर्म कहे जाते।।४४।।
जो अपने-अपने कर्म निरत, नर वही सिद्धि को पाते हैं।
जिस तरह सिद्धि यह मिलती है, वह भी तुमको बतलाते हैं।।४५।।
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