ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, हो मननशील, मन का निग्रह।
भावों की शुद्धि रहे जिसमें, कहलाता है मन का तप वह।।१६।।
तन, मन, वाणी से तीन भाँति के श्रद्धा से होते तप जब।
इच्छा ना हो फल पाने की, सात्विक तप कहते उसको सब।।१७।।
सत्कार मान पूजा पाऊँ, अथवा हो भाव दिखाने का।
वह राजस तप कहलाता है, नश्वर फल मिलता है जिसका।।१८।।
जो मूढ़ व्यक्ति हठ के द्वारा, पीड़ा पाकर हैं तप करते।
या भाव परायी पीड़ा का, उसको ही तामस तप कहते।।१९।।
कर्तव्य समझ कर दान करे, प्रतिदान भाव मन में ना हो।
अवसर, सुपात्र का कर विचार, उसको तुम सात्विक दान कहो।।२०।।
यदि प्रत्युपकार और फल की इच्छा से दान दिया जाये।
जिसको देने में क्लेश मिले, राजसी दान वह कहलाये।।२१।।
सत्कार बिना अपमान सहित, देवे कुपात्र को अगर दान।
ना देश काल का हो विचार, उसको ही तामस दान मान।।२२।।
हे भारत, सुनो, ओम, तत्, सत् ये तीनों नाम ब्रह्म के हैं।
ये वेद, यज्ञ, ब्राह्मण, तीनों उत्पन्न हुए इस ब्रह्म से हैं।।२३।।
जो यज्ञ, दान, तप करते हैं, शास्त्रज्ञ, वेदविद् पण्डित जन।
वे सबसे पहले करते हैं, इस ओम शब्द का उच्चारण।।२४।।
जो केवल मुक्ति चाहते हैं, जो नहीं कामना कुछ रखते।
वे दान, यज्ञ, तप में तत् कह, सब उसके लिए कर्म करते।।२५।।
परमात्मा के जितने स्वरूप, सद्भाव सभी हैं सुनो पार्थ।
सत् कह कर जग में करें सभी शुभ कर्म साधु भावना साथ।।२६।।
तप, दान, यज्ञ में जो निष्ठा, हे अर्जुन उसको सत् कहते।
सत् कहा उसे भी जाता, जो प्रभु-अर्पित कर्म हुआ करते।।२७।।
जो यज्ञ, दान, तप, अन्य कर्म, श्रद्धा के बिना हुआ करते।
परलोक, लोक में, निष्फल वे, हे पार्थ असत् उनको कहते।।२८।।
योग कर्म का किस तरह, हो प्रभु में अनुराग।।
त्रिगुण जगत में मनुज की, तीन तरह से प्रीति।
सत, रज, तम तीनों तजे, तभी मिटे भवभीति।।
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