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श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।


।। ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।

अथ सत्रहवां अध्याय : श्रद्धात्रय विभाग योग

शास्त्र विहित सब कर्म कर, तब होगा उद्धार।
पार्थ पूछते गूढ़ अति, शास्त्र वचन आचार।।
शास्त्र न जाने साधु हो, तब क्या गति हो नाथ।
मुक्ति उसे क्या ना मिले, प्रश्न पूछते पार्थ।।


अर्जुन बोले, विधि-ज्ञान न हो-पर श्रद्धा से पूजन करते।
वे सतोगुणी या राजस हैं या तामस, प्रभुवर क्या कहते।।१।।

प्रभु कहते, ऐसी श्रद्धा को हम तीनों में रख सकते हैं।
हे पार्थ, सात्विकी, राजस या तामस श्रद्धा अब कहते हैं।।२।।
जैसा स्वभाव वैसी श्रद्धा, मानव होता है श्रद्धामय।
भारत जिसकी जैसी श्रद्धा, वैसे स्वरूप में है तन्मय।।३।।
सात्विक की श्रद्धा देवों में, राक्षस यक्षों में राजस की।
भूतों-प्रेतों को पूज रहे, श्रद्धा जिनमें है तामस की।।४।।
हो विधि-विधान का ज्ञान नहीं, पर कठिन तपस्या करते हैं।
अभिमानी, दम्भी और हठी, भोगों की इच्छा रखते हैं।।५।।
यह पंचभूत निर्मित शरीर इसको जो दुःख पहुँचाते हैं।
मुझ आत्म रूप को कृश करते, आसुरी भाव कहलाते हैं।।६।।
तप, दान, यज्ञ, भोजन, ये सब भी तीन तरह के हैं अर्जुन।
ये भेद तुम्हें समझाता हूँ, विस्तार सहित इनको लो सुन।।७।।
दे आयु, सतोगुण, शक्ति, स्बास्थ्य, सुखवर्द्धक, प्रीति बढ़ाता जो।
रससिक्त, हृदय को बल मिलता, चिकना भोजन प्रिय सात्विक को।।८।।
कडुआ, खट्‌टा, नमकीन, उष्ण, तीखा रूखा है दाहक जो।
चिन्ता, दुःख जिससे बढ़ जाते, ऐसा भोजन प्रिय राजस को।।९।।
बासी, जूठा, अपवित्र और अधपका, गंध से युक्त विरस।
ऐसा भोजन ही प्रिय लगता, जिनके उर भाव बसे तामस।।१०।।
फल की इच्छा जिनमें ना हो, पर करते हैं कर्तव्य मान।
जो शास्त्र विहित ही यजन करें, उनको ही सात्विक यज्ञ जान।।११।।
जो यज्ञ किये जाते जग में, कुछ फल पाने की इच्छा से।
या दिखलाने का भाव लिये, राजसी यज्ञ होते ऐसे।।१२।।
विधि हीन, मंत्र से रहित, दक्षिणा विरहित, ना हो अन्न दान।
श्रद्धा के बिना यजन करते, उनको ही तामस यज्ञ जान।।१३।।
विद्वान, देव, द्विज, गुरु पूजन, जीवों की हिंसा ना करना।
ऋजुता, पवित्रता, ब्रह्मचर्य, इसको शारीरिक तप कहना।।१४।।
उद्वेग रहित, सच्ची वाणी, अभ्यास शास्त्र का अथवा जप।।
प्रिय, हितकारक बातें कहना, यह कहलाता वाणी का तप।।१५।।

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