ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः।।
अथ अठारहवाँ अध्याय : मोक्ष संन्यास योग
जिज्ञासा यह भक्त की, उर अविचल विश्वास।।
योग कहा हरि ने नहीं, बतलाया क्या त्याग।
बिना त्याग कैसे करें, प्रभु पद में अनुराग।।
अर्जुन ने पूछा, हे प्रभुवर, संन्यास-तत्व क्या समझाओ।
संन्यास-त्याग में अंतर क्या, हे हृषीकेश यह बतलाओ।।१।।
प्रभु बोले, काम्य कर्म त्यागे, संन्यास यही कहलाता है।
फल की इच्छा तज कर्म करे यह त्याग बताया जाता है।।२।।
कर्मों को तज दे दोष समझ, है एक वर्ग का यह अभिमत।
तप, दान, यज्ञ शुभ कर्म करे, दूसरे वर्ग की है सम्मति।।३।।
संन्यास-त्याग के भेदों में मैं प्रथम त्याग समझाता हूँ।
हैं तीन तरह के त्याग पार्थ, जिनका स्वरूप बतलाता हूँ।।४।।
तप, दान, यज्ञ जैसे उत्तम कर्मों का करना नहीं त्याग।
मुनियों को भी पावन करते, हे गुडाकेश तप, दान, याग।।५।।
तप, दान, यज्ञ या अन्य कर्म, सब करे सदा रह अनासक्त।
केवल फल का ही त्याग करे, है यही हमारा उत्तम मत।।६।।
जो नियत कर्म हैं भरत श्रेष्ठ, उनको त्यागे यह उचित नहीं।।
उनको तजते हैं मूढ़ व्यक्ति, कहलाता तामस त्याग वही।।७।।
जो सभी कर्म दुख रूप जान कष्टों के भय से त्याग करे।
फल उन्हें त्याग का ना मिलता, है राजस त्याग कहाता ये।।८।।
कर्त्तव्य समझकर कर्म करे, फल तजे न उसमें रखे राग।
बस यही परंतप कहलाता सर्वथा सात्विकी भाव त्याग।।९।।
ना प्रेम करे शुभ कर्मों से, दुष्कर्मो से ना द्वेष करे।
ऐसा त्यागी सात्विकी पुरुष, ज्ञानी संशय से सदा परे।।१०।।
कोई भी तनुधारी जग में सब कर्म नहीं तज सकता है।
इसलिए उसे त्यागी कहिये जो कर्मों का फल तजता है।।११।।
तन तजे सकामी पुरुषों को मिलते शुभ, अशुभ, मिश्र ये फल।
आसक्ति त्याग कर कर्म करे, इससे ना मिल पाते प्रतिफल।।१२।।
हैं सांख्य शास्त्र में बतलाते, कर्मो के पाँच प्रमुख कारण।
हे महाबाहु यह भेद जान, सुन मन में तुम करलो धारण।।१३।।
आधार, चेष्टा, दैव, करण, कर्त्ता ये मिलकर पांच हुए।
इनसे ही सभी कर्म होते, इसलिए कहाते कारण ये।।१४।।
तन, मन या वाणी के द्वारा, जो कर्म हुआ करते जग में।
हों शास्त्र-विहित या हों विरुद्ध, पर कारण होते पांचों ये।।१५।।
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