ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
योगी जन करके विविध यत्न आत्मा को अनुभव में लाते।
अविवेकी लाख प्रयत्न करें पर इसको जान नहीं पाते।।११।।
जिस सूर्य तेज के द्वारा ही सारा संसार प्रकाशित है।
ये चन्द्र, अग्नि सब तेज-पुंज मुझसे होते उद्भासित हैं।।१२।।
मैं अपनी महाशक्ति द्वारा करता सब जीवों को धारण।
मैं ही हूँ सोम रूप जग में होता औषधियों का पोषण।।१३।।
मैं प्राण, अपान वायु संयुत वैश्वानर आश्रय जीव देह।
सब अन्न मुझी से पचते हैं, जो भोज्य, चोष्य या पेय, लेह।।१४।।
मैं सब के उर में स्थित हो भय मिटा ज्ञान करता प्रदान।
मैं ही वेदों का ज्ञाता हूँ, मेरा वेदों से मिले ज्ञान।।१५।।
क्षर एक दूसरा अविनश्वर, होते हैं पुरुष जगत में दो।
नश्वर सब जीवों का शरीर, जीवात्मा जिसका नाश न हो।।१६।।
पर उत्तम पुरुष उसे कहते जो सारे जग में रहता है।
वह ही अविनाशी परमेश्वर सबका परिपालन करता है।।१७।।
मैं नाशवान या अविनाशी - दोनों पुरुषों से उत्तम हूँ।
इसलिए लोक या बेदों में कहलाता भी पुरुषोत्तम हूँ।।१८।।
जो ज्ञानवान नर हे अर्जुन, पुरुषोत्तम मुझे समझता है।
वह ही सर्वज्ञ कहा जाता जो सब तज मुझको भजता है।।१९।।
जो तुम्हें बताया अभी पार्थ वह गुह्य ज्ञान कहलाता है।
भारत जो जाने वह ज्ञानी जीवन कृतार्थ हो जाता है।।२०।।
भोजन पहले नित पढे, भक्ति भाव चितलाय।।
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