ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः।।
अथ पन्द्रहवाँ अध्याय : पुरुषोत्तम योग
बिना भक्ति ना हरि मिलें, समझाते भगवान।।
प्रभु जी की महिमा अमित, माया अपरम्पार।
यह रहस्य समझा दिया, मिटे भक्ति व्यभिचार।।
है ब्रह्म मूल, ऊपर शाखा, तल ब्रह्मा, वेद सभी पत्ते।
वेदज्ञ वही जो यह जाने, अव्यय अश्वत्थ इसे कहते।।१।।
प्रसरित त्रिगुणात्मक शाखायें, कोपलें निकलती विषयों की।
हैं जड़ें कर्म बन्धन वाली, हर लोकों में फैली इसकी।।२।।
ना आदि, अन्त, ना स्थिति है, ना रूप समझ में भी आता।
अश्वत्थ रूप जग जड़ें जटिल, वैराग्य शस्त्र से कट पाता।।३।।
वह राह पकड़ उस पद तक चल, जाकर न जहां से वापस हो।
इसलिए पुरातन वृत्ति जगा, उस आदि पुरुष की शरण गहो।।४।।
तज मान-मोह, जित संग-दोष, अध्यात्म निरत, हो काम-विरत।
दुख-सुख के द्वन्द्वों से विमुक्त, ज्ञानी पाता वह अव्यय पद।।५।।
शशि, सूर्य, अग्नि का वास न हो, पर रहता हो उज्ज्वल प्रकाश।
जाकर फिर वापस ना आए, ऐसा मेरा बह परम वास।।६।।
मेरा ही अंश सनातन, चित, जग में हो जीव रूप रहता।
जो प्रकृति जन्य इन्द्रियों सहित, मन को नित आकर्षित करता।।७।।
जब इस शरीर को तज कर के, दूसरा देह फिर पाता है।
मन इन्द्रिय जीव संग जाते, ज्यों वायु गन्ध ले जाता है।।८।।
नासिका, श्रवण, रसना, त्वक् से, जीवात्मा नए देह में भी।
नव तन में, मन के आश्रय से सेवन होता विषयों का ही।।९।।
मरते, जीते, स्थिर रहते, या विषयों का सेवन करते।
अज्ञानी नहीं जान पाते, तत्वज्ञ जान इसको सकते।।१०।।
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