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श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।


जो मरे रजोगुण बढ़ने पर, वह फिर से नर तन पाता है।
तम गुण बढ़ने पर देह तजे, वह अधम योनि में जाता है।।१५।।
सात्विक कर्मों के होते हैं, परिणाम सदा सुखमय निर्मल।
राजस कर्मों से दुख मिलता, मूढ़ता कर्म तामस का फल।।१६।।
है ज्ञान उपजता सतगुण से, होता है लोभ रजोगुण से।
अज्ञान, प्रमाद, मोह ये सब, लेते हैं जन्म तमोगुण से।।१७।।
हैं स्वर्ग भोगते सतोगुणी, राजस पाते फिर से नर तन।
पर निन्दनीय तमगुण वाले, हो जाता उनका अध:पतन।।१८।।
ये गुण ही सब कुछ करते हैं, जीवात्मा इनसे सदा परे।
जो ज्ञानी ऐसा समझं सके, वह परमेश्वर को प्राप्त करे।।१९।।
इन तीनों गुणों से ही उपजे तन का जिसको हो गया ज्ञान।
दुख जन्म-मृत्यु बूढ़ेपन के सब मिटे, उसे तू अमर मान।।२०।।

पूछते पार्थ प्रभु समझाओ त्रिगुणातीतों के क्या लक्षण।
आचरण करें कैसे जग में, गुण से कैसे हैं अतिक्रमण।।२१।।

प्रभु बोले ज्ञान, प्रवृत्ति मोह, इनकी कुछ भी परवाह नहीं।
ये आते हैं तो घृणा नहीं, जाते हैं तो भी चाह नहीं।।२२।।
जो उदासीन हो रहते हैं, गुण जिन्हें नहीं विचलित करते।
ये गुण ही सब कुछ करते हैं, इस निश्चय में ही दृढ़ रहते।।२३।।
हो धीर पुरुष निज में स्थित, सोना, पत्थर मिट्‌टी समान।
निन्दा-स्तुति, सुख-दुख, अप्रिय और प्रिय इनको ले समरूप मान।।२४।।
हो शत्रु-मित्र में भेद नहीं, जिस को समान अपमान-मान।
प्रारम्भ कर्म करते ही ना, उनको तुम त्रिगुणातीत जान।।२५।।
मुझमें रख अविचल भक्ति सदा, जो मेरा ही कर रहे भजन।
पाते वे मुझ परमेश्वर को, कर सभी गुणों का अतिक्रमण।।२६।।
सब का आश्रय मैं परब्रह्म, अमृत हूँ, मैं ही अविनाशी।
मैं ही अखण्ड आनन्द रूप, हूँ धर्म सनातन भी मैं ही।।२७।।

इति चौदह अध्याय में, योग तीन गुण भेद।
गुण से ही सब कर्म हैं, त्यागे तो निर्वेद।।

 

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