ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
अथ चौदहवाँ अध्याय : गुणत्रय विभाग योग
अर्जुन मन में सोचते, किसको कहते ज्ञान।।
पूछा हरि से अब कहो, हे प्रभुवर वह ज्ञान।
अर्जुन सुन लो ध्यान, से बोले श्री भगवान।।
हरि कहते, मुनि जन जान जिसे, भव पार हुए हैं, हे अर्जुन।
ज्ञानों में उत्तम ज्ञान वही बतलाता हूँ इसको लो सुन।।१।।
इस परम ज्ञान का आश्रय ले, जो मुझ जैसा आचरण करे।
ना महाप्रलय की व्यथा मिले, ना कभी सृष्टि में देह धरे।।२।।
मम मूल प्रकृति है जनन-केन्द्र, जीवात्म रूप में बीज वपन।
हे भरत श्रेष्ठ, इस भाँति सदा जग के जीवों का है प्रजनन।।३।।
चौरासी लाख योनियों के, द्वारा जग में प्राणी आता।
मैं बीज प्रदाता पिता पार्थ, मम प्रकृति बनी सबकी माता।।४।।
सत, रज, तम तीनों गुण अर्जुन, उत्पन्न प्रकृति से होते हैं।
अविनाशी आत्मा निर्गुण को, ये बाँध देह में लेते हैं।।५।।
निर्मल ज्योतिर्मय निर्विकार, यह सतगुण दिखलाई देता।
पर ज्ञान और सुख लिप्सा से, देही को यहाँ बाँध लेता।।६।।
तृष्णा-आसक्ति रजोगुण में, इसको तुम राग रूप जानो।
कौन्तेय कर्म की लिप्सा से, तुम इसे जीव-बन्धन मानो।।७।।
तम गुण देता अज्ञान सदा, सबको वह मोहित करता है।
आलस, प्रमाद, निद्रा द्वारा, भारत बन्धन में रखता है।।८।।
सत सुख से रज कर्मों द्वारा, सारे जग को हैं जीत रहे।
ढँक ज्ञान, प्रमाद बढ़ा करके, तम. रहता है सब जीव गहे।।९।।
रज तम को दबा सत्व बढ़ता सत तम को दबा बढ़े रजगुण।
सत रज निरोध कर तम बढ़ता सिद्धान्त यही सुन लो अर्जुन।।१०।।
इन्द्रिय मन आदिक द्वारों में जब होता है निर्मल प्रकाश।
जाग्रत विवेक जब हो जाये, तो यही सतोगुण का विकास।।११।।
भोगों की चाह, अशांति, लोभ, कर्मों में नित्य फँसे रहना।
हे भारत, तुम इसको कहना अत्यन्त रजोगुण का बढ़ना।।१२।।
शुभ कर्मों में हो अरुचि, त्याग, अज्ञान, मोह ऐसे लक्षण।
तम गुण बढ़ने पर होते हैं, ऐसा समझो कुन्तीनन्दन।।१३।।
जब सत्व बढ़ा होवे तन में, उस समय देह को जो तजता।
जाते हैं जहां परम ज्ञानी, उन निर्मल लोकों में रहता।।१४।।
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