ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
जो नहीं जानते ज्ञान-ध्यान, संतों से सुन सुमिरन करते।
ऐसे सच्चे श्रोता जन बन सतसंगी भवसागर तरते।।२५।।
जड़-जंगम जितने जीवों का, जो जन्म जगत में देख रहा।
वे पुरुष-प्रकृति-संयोगज हैं, हे भरत श्रेष्ठ यह गया कहा।।२६।।
जो देख रहा सब जीवों को, प्रतिक्षण होते जाते विनष्ट।
अविनश्वर प्रभु सब में व्यापक बस वही दृष्टि है सही दृष्टि।।२७।।
सबमें समान परमेश्वर का, यह आत्मरूप जो जान गया।
बह मरा कहाँ, मरकर के तो, वह मुक्त हुआ, परधाम गया।।२८।।
सब कर्म हो रहे जो जग में, इनकी करती है प्रकृति सृष्टि।
आत्मा को ना कर्त्ता माने, बस वही दृष्टि है सही दृष्टि।।२९।।
ये सारे रूप प्रकृति के हैं, सारा विस्तार प्रकृति है ये।
परमेश्वर उसी समय मिलता, जिस काल बोध यह हो जाये।।३०।।
निर्गुण, अनादि, अविनाशी प्रभु यद्यपि शरीर में रहता है।
कौन्तेय किन्तु वह कर्म विरत, ना करता है, ना बँधता है।।३१।।
होकर जैसे आकाश सूक्ष्म, सब जगह रहे, पर लिप्त नहीं।
वैसे ही आत्मा सबमें है, पर तन में रह अनुरक्त नहीं।।३२।।
जैसे एकाकी सूर्य देव से सारा लोक प्रकाशित है।
भारत, आत्मा से उसी तरह यह क्षेत्र सदा उद्भासित है।।३३।।
निज ज्ञान-नेत्र से जो देखे, क्षेत्रज्ञ-क्षेत्र का यह अन्तर।
ना पड़े प्रकृति के बन्धन में, वह परमधाम को जाता नर।।३४।।
इति तेरह अध्याय में, क्षेत्री-क्षेत्र विभाग।
योग अगर यह जान ले तजे प्रकृति से राग।।
तन तो केवल प्रकृति है, मान लिया सिर मौर।
इस तन का अभिमान तज, मूल शक्ति तो और।।
हरिजन बन तन तनक तज, अलखहिं लख रख भाव।
यह चख जग भख करत नर, अन्तर आँखि जगाव।।
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