ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
सब ओर शीश, मुख, नेत्र, कर्ण सब ओर हाथ रहता जिसका।
इस तरह घेर लेता सब कुछ, व्यापक जग वास रहे उसका।।१३।।
उसके इन्द्रियाँ नहीं होतीं पर विषयों का उपयोग करे।
आसक्ति रहित, सबका पालक निर्गुण हो गुण-उपभोग करे।।१४।।
चर-अचर सभी में बसा हुआ, भीतर-बाहर है कहाँ नहीं।
अति सूक्ष्म ज्ञान में ना आता, अति निकट, दूर से दूर वही।।१५।।
है एक वही सबमें लेकिन सबमें यह पृथक रूप रहता।
है वही जानने योग्य देव जो सृजन, प्रलय, पालन करता।।१६।।
उसको अज्ञान न छू सकता, सारा प्रकाश उससे ज्योतित।
वह ज्ञानगम्य है स्वयं ज्ञान, वह ज्ञेय हृदय में ही स्थित।।१७।।
तन, ज्ञान, ब्रह्म का यह स्वरूप जो मैंने बतलाया तुमसे।
जो भक्त जानता इसे पार्थ, वह तर जाता भवसागर से।।१८।।
क्षेत्रज्ञ-क्षेत्र ही पुरुष-प्रकृति, इनको ही पार्थ अनादि जान।
सब गुणों और सब दोषों की उत्पत्ति प्रकृति से समझ, मान।।१९।।
जो कार्य-करण मिल क्रिया करें, उनका ही हेतु प्रकृति में है।
सुख-दुख को भोगे पुरुष अत:, भोगों का हेतु पुरुष ये है।।२०।।
वह पुरुष प्रकृति में रहने से, सारे गुण सदा भुगतता है।
फिर इन्हीं गुणों की संगति से, शुभ-अशुभ योनि में गिरता है।।२१।।
यह पुरुष प्रकृति से जुड़कर भी उपद्रष्टा और महेश्वर है।
भर्त्ता, भोक्ता, देता सलाह, तन से पर वह परमेश्वर है।।२२।।
जो प्रकृति, प्रकृति के गुणों, पुरुष को अलग-अलग पहचान गया।
सब कुछ करके भी जग में रह उद्धार हुआ, भव पार गया।।२३।।
कुछ सांख्य ज्ञान, कुछ कर्म योग से ईश्वर का दर्शन करते।
कुछ ध्यान योग कर अपने से अपने में प्रभु को हैं धरते।।२४।।
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