ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
ॐश्रीपरमात्मने नम:
अथ त्रयोदश अध्याय : क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
उसकी विधि समझा रहे अर्जुन को भगवान।।
प्रभु कहते जो पाया शरीर वह क्षेत्र बताया जाता है।
कौन्तेय क्षेत्र का ज्ञान जिसे क्षेत्रज्ञ वही कहलाता है।। १।।
सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ रूप आत्मा मुझको निज मन में गुन।
क्षेत्रज्ञ क्षेत्र का ज्ञान जिसे उसको ज्ञानी कहते अर्जुन।। २।।
यह क्षेत्र कौन कैसे होता कितने विकार समझाता हूँ।
क्षेत्रज्ञ तत्व का सार पार्थ अब मैं तुमको बतलाता हूँ।। ३।।
ऋषियों ने इसे बताया है वेदों में भी विश्लेषण है।
फिर ब्रह्मसूत्र में तर्क सहित मिल जाता इसका वर्णन है।। ४।।
जल अनल अनिल नभ भूमितत्व अव्यक्त प्रकृति मन और बुद्धि।
दस इन्द्रिय उनके पांच विषय स्पर्श रूप रस शब्द गंध।। ५।।
सुख-दुख इच्छा धारणा द्वेष ये सभी क्षेत्र के हैं विकार।
चैतन्य शक्ति स्थूल देह कुल मिला क्षेत्र का यही सार।। ६।।
स्थिरता शौर्य आत्मनिग्रह गुरु सेवा क्षमा सरलता हो।
सम्मान भाव से दूर, दंभसे परे,अहिंसा प्रियता हो।। ७।।
वैराग्य विषय भोगों से हो, मन अहंकार से दूर रहे।
फिर जन्म मृत्यु या जरा-रोग के दुखदोषों को सदा धरे।। ८।।
आसक्ति रहित हो, पत्नी, सुत, गृह से कोई सम्बन्ध न हो।
शुभ अशुभ फलों के मिलने पर जो सम हो कहीं विरोध न हो।।९।।
मेरा अनन्य हो योग करे, मेरी ही अविचल रहे भक्ति।
एकाकी रहने का इच्छुक, हो सभा जुटाने से विरक्ति।।१०।।
सर्वत्र देखना ईश्वर को अध्यात्म निरत ये सभी ज्ञान।
अज्ञान ठीक विपरीत दशा, ऐसी ऋषियों की बात मान।।११।।
जो ज्ञेय उसे बतलाता हूँ, अमरत्व दिलाने वाला यह।
सत असत से परे जो अनादि, है परब्रह्म कहलाता वह।।१२।।
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