ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
यदि ऐसा भी ना कर पाना, तब मन को वश में कर लेना।
मुझको पाने के लिए पार्थ, सारी इच्छायें तज देना।।११।।
अभ्यासों से है श्रेष्ठ ज्ञान, पर ध्यान ज्ञान से भी उत्तम।
फल त्याग ध्यान से भी बढ़ कर, इससे मिलती है शांति परम।।१२।।
हो दयावान, ना द्वेष भाव, सबका प्रेमी, सबसे निर्मम।
जिसमें न अहंकार होता, जो क्षमावान सुख-दुख में सम।।१३।।
जो वशी सदा सन्तुष्ट और, योगी रखता हो दृढ़ निश्चय।
मुझमें मन बुद्धि समर्पित हो, वह भक्त सदा मुझको है प्रिय।।१४।।
जो जग को व्यथित नहीं करता, वेदनाग्रस्त ना जिसका हिय।
जिसमें ईर्ष्या, भय, हर्ष नहीं उद्वेग मुक्त, वह मेरा प्रिय।।१५।।
कुछ चाह नहीं हो उदासीन, शुचि, दक्ष और हो शोक मुक्त।
कर्मों का जो परित्याग किए, मुझको प्रिय मेरा वही भक्त।।१६।।
कामना रहित, हो, शोच रहित, शुभ-अशुभ कर्म ना करें युक्त।
ना हर्षित हो, ना द्वेष करे, मुझको प्रिय मेरा यही भक्त।।१७।।
जो शत्रु-मित्र, अपमान-मान को एक समान समझता है।
आसक्ति रहित, सर्दी-गर्मी, सुख-दुख को सम हो सहता है।।१८।।
निन्दा-स्तुति सम, हो मननशील, सन्तुष्ट रहे जैसे-तैसे।
अनिकेत, बुद्धि स्थिर जिसकी, प्रिय मुझे भक्त होते ऐसे।।१९।।
इस धर्म मयी अमृत वाणी को मान ध्यान मेरा धरते।
श्रद्धा से भक्ति करें मेरी वे भक्त मुझे अति प्रिय लगते।। २०।।
मुझे छोड़ न अन्य गति उसे भक्त पहचान।।
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