ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
|
5 पाठकों को प्रिय 411 पाठक हैं |
गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।
अथ बारहवाँ अध्याय : भक्ति योग
अर्जुन को शंका हुयी, किसे करें स्वीकार।।
भक्ति भाव ही श्रेष्ठ है, समझाते भगवान।
भक्त बनो पाओ मुझे, करूँ सदा कल्याण।।
अर्जुन ने पूछा- एक भक्त साकार शरण में जाता है।
दूसरा उपासक निर्गुण का प्रभु, कौन श्रेष्ठ कहलाता है।।१।।
प्रभु कहते, मन मुझमें रख के, जो मेरा ध्यान लगाते हैं।
श्रद्धा संयुत होते अनन्य, उत्तम योगी कहलाते हैं।।२।।
कूटस्थ, अचल, ध्रुव वह अचिन्त्य, कहलाता है जो अविनश्वर।
सर्वत्र व्याप्त, संकेत हीन, अव्यक्त उपासक है जो नर।।३।।
इन्द्रियाँ नियंत्रण में करता, जीवों के हित रत सदा रहे।
सब में समत्व की बुद्धि जगे, वह भी मुझको पा जाता है।।४।।
पर कष्ट उठाना पड़ता है, निर्गुण उपासना करने में।
तनुधारी दुःख उठाते हैं, इस कठिन राह पर चलने में।।५।।
मुझ सगुण रूप परमेश्वर का, जो ध्यान निरन्तर धरते हैं।
सब कर्म मुझे ही अर्पित कर, बस एक मुझी में रमते हैं।।६।।
हे पार्थ, चित्त जिनका मुझमें, उनसे मैं नेह निभाता हूँ।
इस मृत्यु रूप भवसागर से, मैं उन्हें पार ले जाता हूँ।।७।।
मुझमें ही बुद्धि निवेशित कर, मुझमें मन लगा न और कहीं।
मिल जाओगे मुझमें भारत, इसमें कोई सन्देह नहीं।।८।।
यदि लगा न पाओ दृढ़ होकर तुम अचल रूप से अपना मन।
अभ्यास योग का करो पार्थ मुझको पाने का यह प्रयत्न।।९।।
अभ्यास अगर ना कर पाना तब मेरा कर्म परायण हो।
मेरे हित कर्म करोगे तब, पाओगे मुझ नारायण को।।१०।।
|