ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
जिस तरह पतिंगे अग्नि-ज्वाल में गिरते करने निज अनिष्ट।
उस तरह लोक के जीव सभी, हो रहे देव तब मुख प्रविष्ट।।२९।।
प्रज्वल बहु आनन के द्वारा, हर ओर जगत को खाते हो।
अपने प्रकाश की ज्वाला से, सारा जग आप तपाते हो।।३०।।
हे उग्र रूप, हैं आप कौन? हे आदि पुरुष कुछ समझायें।
देवाधिदेव मैं नमन करूँ, अपनी प्रवृत्ति कुछ बतलायें।।३१।।
प्रभु बोले, मैं हूँ महाकाल, संहारक, करता जग विनाश।
मत लड़ो, किन्तु यह सत्य, मरेंगे सारे योधा अनायास।।३२।।
इसलिए उठो, जीतो बैरी, अब यश को पाओ, राज करो।
ये मेरे द्वारा मरे हुए बस बन निमित्त तुम प्राण हरो।।३३।।
ये भीष्म, जयद्रथ, द्रोण-कर्ण, या अन्य वहुत से योधा गण।
मैं मार चुका, तुम शोक त्याग, निर्भय हो मारो जीतो रण।।३४।।
संजय बोले, यह सुन करके, काँपते हुए थर-थर डर से।
करबद्ध प्रणाम किया पहले, फिर अर्जुन बोले माधव से।।३५।।
प्रभुवर सारा जग हर्षित हो, नित प्रेम सहित करता कीर्त्तन।
राक्षसगण भगे दिशाओं में, सब सिद्ध कर रहे तुम्हें नमन।।३६।।
विधि के भी स्रष्टा, परम श्रेष्ठ, क्यों सारे जग में नमन न हो।
अक्षर, अनन्त, विश्वेश सतासत पर तुमसे बढ़ कौन अहो।।३७।।
तुम पुरुष, पुरातन, आदि देव, जग के आश्रय, हे परम धाम।
तुम हो अनन्त, सर्वज्ञ, ज्ञेय, हे विश्व रूप, तुम पूर्ण काम।।३८।।
प्रपितामह तुम्हीं, प्रजापति हो, तुम वरुण अग्नि, यम, चंद्र पवन।
हे नाथ नमन, हर बार नमन, शत बार, हजारों बार नमन।।३९।।
हे सर्व, तुम्हें सर्वत: नमन, अग्रत: नमन पृष्ठत: नमन।
हे अमित वीर्य विक्रम वाले, तुम सर्व, सभी तब गहे शरण।।४०।।
हे कृष्ण, हे सखा, हे यादव, कहता था ऐसा मित्र जान।
भ्रम और प्रणयवश भूल हुयी, महिमा का तब था नहीं ज्ञान।।४१।।
परिहास, विहार, शयन, आसन, भोजन में किया निरादर जो।
एकाकी या सबके समक्ष, हे अप्रमेय प्रभु क्षमा करो।।४२।।
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