ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
देवाधिदेव, मैं देख रहा, तव तन में सारे जीवों को।
श्री महादेव, ब्रह्मा जी को, सब ऋषियों, सर्पों, देवों को।।१५।।
दिखलायी देते मुझे नाथ, मुख, नयन और बहु बाहु उदर।
पर आदि, मध्य, अवसान ज्ञान, ना मुझे हो रहा विश्वेश्वर।।१६।।
रवि-अग्नि ज्वाल ज्यों दिव्य तेज, हर ओर फैलता ही जाता।
कर गदा, चक्र, सिर मुकुट देख कर भी कुछ समझ नहीं पाता।।१७।।
जग के आश्रय हो परम तत्व, तुम ज्ञेय और परमाक्षर हो।
धर्मों के रक्षक, आदि पुरुष, मेरे मत से अविनश्वर हो।।१८।।
हो आदि, मध्य, अवसान रहित, बाहें अनन्त शशि-सूर्य नयन।
प्रज्वलित अग्नि-सा वदन प्रभा, ज्वाला से जग को मिले तपन।।१९।।
पृथ्वी, आकाश, दिशाओं में, सब ओर आप ही रहे व्याप।
यह रूप भयंकर देख-देख, सब प्राणी भय से रहे कांप।।२०।।
होकर भयभीत देवतागण, प्रभुवर गुण का करते बखान।
होवे कल्याण यही कहकर, ऋषि मुनि गण स्तुति करें गान।।२१।।
आदित्य, रुद्र, बसु, विश्वदेव, अश्विनी, मरुदगण और पितर।
गन्धर्व, यक्ष, सुर, असुर, नाग, सब देख रहे होकर तत्पर।।२२।।
हैं नेत्र, हाथ, मुख, उदर बहुत, दाढ़ें अत्यन्त भयंकर हैं।
मुझ सहित व्यथित यह सारा जग, ऐसा स्वरूप प्रलयंकर है।।२३।।
हैं दीर्घ नेत्र, देदीप्य वर्ण, नाना प्रभु वदन गगन छूता।
भयभीत हो रहा देख-देख, मन शान्ति और धीरज खोता।।२४।।
दाढ़ें कराल, कालाग्नि सदृश, मुख से है निकल रही ज्वाला।
हे जगन्नाथ कीजिये कृपा, मिट गयी शांति विभ्रमवाला।।२५।।
गुरु द्रोण, पितामह, कर्ण आदि सारे कौरव सब राजागण।
ये मुख्य-मुख्य सारे योधा, पाण्डव सेना के भी भगवन।।२६।।
विकराल दाढ़ वाले मुख में, भयभीत कर रहे हैं प्रवेश।
दिखते इनके सिर भी विदीर्ण, दाँतों में लिपटे हृषीकेश।।२७।।
सागर की ओर बहा करती, जैसे नदियों की प्रखर धार।
वैसे प्रवेश सब जीवों का, जलती मुख ज्वाला को निहार।।२८।।
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