ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः।।
अथ ग्यारहवां अध्याय : विश्वरूप दर्शन योग
अब स्वरूप दिखलाइए, मिटे मोह अरु काम।।
विश्व रूप दर्शन दिया, मिटा सकल अज्ञान।
अर्जुन कारण तुम बनो, सबको मुझमें जान।।
तब कहा परंतप ने प्रभुवर कर कृपा मुझे जो ज्ञान दिया।
इस अमृत वाणी से मोहन हर मोह, दूर अज्ञान किया।।१।।
जग की उत्पत्ति प्रलय सबका विस्तार सहित है किया श्रवण।
अविनाशी, ब्रह्म आप विभु प्रभु, जाना प्रभाव हे कमल नयन।।२।।
जैसा कहते हो अपने को, ऐसे ही हो तुम परमेश्वर।
पुरुषोत्तम मुझको दिखला दो, जो रूप आपका है ईश्वर।।३।।
प्रभु अगर समझते आप उचित, निज विश्व रूप तब दिखलावें।
योगेश्वर यह अभिलाषा है, अधिकारी अगर मुझे पावें।।४।।
प्रभु बोले, दिव्य रूप मेरे, देखो सैकड़ों हजारों ये।
वहु आयामी हैं, बहु वर्णी नाना आकृतियों वाले ये।।५।।
आदित्य, रुद्र, वसु, मरुतों का, अश्विनी कुमारों का दर्शन।
नाना अद्भुत जो अनदेखे, उनको देखो कुन्ती नन्दन।।६।।
मेरे विराट वपु के भीतर, सम्पूर्ण चर-अचर का निवेश।
जो और देखना चाह रहे, वह भी देखो हे गुडाकेश।।७।।
अपने इन चर्म-चक्षुओं से, तुम देख नहीं सकते मुझको।
ऐश्वर्य दिखाने को अर्जुन, देता हूँ दिव्य नेत्र तुमको।।८।।
संजय बोले, हे महाराज, अर्जुन से फिर ऐसा कहकर।
दिखलाया अपना विश्व रूप, हरि ने निज दिव्य रूप धर कर।।९।।
थे अद्भुत दृश्य बहुत प्रभु में, योगेश्वर के बहु बदन नयन।
कर में दिव्यास्त्र अनेक लिए सोहें शरीर पर आभूषण।।१०।।
तन दिव्य वसन मालादि लेप, धारण करके प्रभु सोह रहे।
मुख चारों ओर अनन्त रूप, जो देखे वह आश्चर्य गहे।।११।।
तन-द्युति की समता कौन करे, नभ कोटि-कोटि रवि की लेखा।
ऐसा स्वरूप था भासमान, जो वहाँ धनंजय ने देखा।।१२।।
अर्जुन ने जब परमेश्वर का, देखा ऐसा वह विश्व रूप।
उसमें ही एक जगह स्थित, देखा यह सारा जग अनूप।।१३।।
पड़ गये अचम्भे में अर्जुन, फिर हाथ जोड़ कर रहे खड़े।
रोमांचित तन करके प्रणाम, नारायण से वे बोल पड़े।।१४।।
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