ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
दैवी स्वभाव का आश्रय ले, हे कुन्ती सुवन, महात्मा जन।
मुझ अक्षर ब्रह्म सनातन का, करते अनन्य मन नित्य भजन।।१३।।
ऐसे दृढ़व्रतधारी जन ही, नित करते हैं कीर्तन-पूजन।
करते उपासना मुझमें रम, वे भक्ति भाव से करें नमन।।१४।।
कुछ मुझको निर्गुण रूप मान, नित ज्ञान-योग से भजते हैं।
कुछ विश्व रूप में सतत निरत, पर सब मुझको ही जपते हैं।।१५।।
मैं श्रौत कर्म, मैं यज्ञ, स्वधा हूँ और मैं सभी औषधि हूँ।
मै मंत्र, अग्नि, हवि हूँ अर्जुन, मैं हवन किया हूँ, आहुति हूँ।।१६।।
मैं माता, पिता, पितामह हूँ, मैं ही सारे जग का धाता।
हूँ वेद्य, पवित्र ओम अक्षर, ऋक, यजुर, साम का उद्गाता।।१७।।
मैं स्वामी, सुहृद और भर्त्ता, आधार और गति, साक्षी हूँ।
मैं प्रलय तथा उत्पत्ति पार्थ. अविनाशी, बीज रूप भी हूँ।।१८।।
मैं ही वर्षा का कारण हूँ, मैं ही जल बन बरसा करता।
मैं मृत्यु, अमृत, सत और असत रवि रूप सदा मैं ही तपता।।१४।।
जो पुण्यात्मा जन स्वर्ग चाह, वैदिक यज्ञों को करते हैं।
पुण्यों के बल पा इन्द्र लोक बहुविध भोगों में रमते हैं।।२०।।
पर पुण्य क्षीण हो जाने पर, फिर मृत्यु लोक में आते हैं।
करते सकाम वे कर्म, अत: जग में ही आते-जाते हैं।।२१।।
परित: उपासना करते जो, होकर अनन्य मेरा चिन्तन।
उन सदा समर्पित भक्तों का, मैं योग-क्षेम भी करूँ वहन।।२२।।
कौन्तेय अन्य देवों का जो, श्रद्धा से करें यजन-पूजन।
यद्यपि यह भजन हमारा ही, पर मूढ़, नहीं समझें निज मन।।२३।।
मैं ही भोक्ता, मैं ही स्वामी, सब यज्ञ मुझे ही होते हैं।
जो नहीं जानते हैं ऐसा, वे परमधाम को खोते हैं।।२४।।
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