ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः।।
अथ नवाँ अध्याय : राजविद्याराजगुह्मयोग
पत्र, पुष्प, जल प्रेम से, मिले करूँ स्वीकार।।
हो अनन्य हरि को भजे, और न कोई राह।
निज भक्तों का प्रभु करें, योग-क्षेम निर्वाह।।
प्रभु कहते जो विज्ञान सहित, वह गुह्य ज्ञान अब सुन मुझसे।
इसका रहस्य यदि समझ गया, तर जायेगा भवसागर से।।१।।
अत्यन्त गुप्त, उत्तम, पवित्र, राजा है सब विद्याओं में।
सुख-साध्य, अनश्वर, धर्मयुक्त, तत्क्षण फल देने वाला ये।।२।।
जिसका इसमें विश्वास नहीं, वह मुझे प्राप्त ना कर सकता।
संसार-चक्र यह मृत्यु रूप, इसमें ही वह भटका करता।।३।।
अर्जुन, जग सदा व्याप्त रहता, अव्यक्त रूप मुझ ईश्वर में।
यद्यपि मैं उनमें नहीं किन्तु, सब प्राणी रहते हैं मुझमें।।४।।
ऐश्वर्य योगबल का समझो, प्राणी भी ना मुझमें रहते।
पालक, धारक, संहारक मैं, मेरे सब, ना मुझको गहते।।५।।
सर्वत विचरने वाला ज्यों यह वायु गगन में स्थित है।
वैसे ही मुझ परमेश्वर में, ये प्राणी सदा प्रतिष्ठित हैं।।६।।
ये सभी भूत मम प्रकृति, प्रलय में मुझमें ही लय पाते हैं।
फिर नयी सृष्टि में नया रूप, मुझसे पा जग में आते हैं।।७।।
निज-निज स्वभाव के वशीभूत, प्राणी निज कर्मों से बँधता।
इस तरह पार्थ माया द्वारा, मैं बारम्बार सृष्टि रचता।।८।।
मेरी कर्मों से प्रीति नहीं, मैं रहता उनसे उदासीन।
इसलिए धनंजय मेरे ये, सब कर्म सदा रहते विलीन।।९।।
सचराचर सृष्टि प्रकृति रचती, मुझमें ही अधिष्ठान पाकर।
संसार चक्र यह घूम रहा, भारत मेरे संकेतों पर।।१०।।
मैं शक्तिवान जगदीश्वर हूँ, जो ऐसा नहीं जानते हैं।
वे मूढ़ प्राप्त करके नर तन, ईश्वर को तुच्छ मानते हैं।।११।।
होता स्वभाव उन मूढ़ों का, राक्षसों और असुरों जैसा।
सब ज्ञान-कर्म वे व्यर्थ करें, मति का विभ्रम रहता ऐसा।।१२।।
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