ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
पृथ्वी से ब्रह्म लोक तक में, होता रहता आना-जाना।
कौन्तेय, किन्तु कैवल्य मिले, छूटे जग का ताना-बाना।।१६।।
चारों युग बार हजार गए, दिन एक विधाता का यह है।
जाने इतनी ही बड़ी रात, विधि अहोरात्र ज्ञाता वह है।।१७।।
विधि के जगने पर होता है, अव्यक्त देह से जग-उद्भव।
जब रात विधाता की होती, जग में होता है महाप्रलय।।१८।।
हे पार्थ, इस तरह जीवों का, परवश होता आना-जाना।
जब ब्रह्म-दिवस तो सृष्टि हुयी, विधि-निशा हुयी तो मिट जाना।।१९।।
उस विधि की ऊर्जा से बढ़ कर, जो व्यापक ब्रह्म सनातन है।
सब जीवों के लय होने पर, हो पाता जिसका नाश न है।।२०।।
अव्यक्त और अक्षर है वह, है वही परम पद कहलाता।
वह ही है मेरा परम धाम, जो वहाँ गया ना फिर आता।।२१।।
जिस ईश्वर में है जगत व्याप्त, जिसमें सव प्राणी वास करें।
हे अर्जुन, भक्ति अनन्य अगर, तो भक्त उसे ही प्राप्त करें।।२२।।
किस समय तजे तन मुक्ति मिले, आना पड़ता जग में किसमें।
बतलाता भारत तुम्हें तत्व, जो भेद छिपाया है इसमें।।२३।।
दिन, शुक्ल पक्ष, षटमास उत्तरायण, पावक ये ज्योतिवान।
इस समय त्याग तन ब्रह्मलीन, होते जिनको है ब्रह्मज्ञान।।२४।।
जो कृष्ण पक्ष, है निशा, अयन दक्षिण के, होते षष्ठ मास।
इसमें तन तज योगी सकाम, पा स्वर्ग पुन: जग करें वास।।२५।।
ये शुक्ल कृष्ण दो मार्ग, जगत में उनकी रीति सनातन है।
हो शुक्ल मार्ग तो मुक्ति मिले, पर कृष्ण मार्ग आवर्तन है।।२६।।
जो तत्व मार्ग का समझ गया, वह मोह रहित होता अर्जुन।
इसलिए अहर्निशि मुझको भज, अब योग युक्त हो मन में गुन।।२७।।
तप, यज्ञ, दान या वेद-पाठ-इनसे जो फल मिलते उत्तम।
योगी उनको भी पार करे, पा जाता है वह पुरुष परम।।२८।।
कैसे मिलता परम पद, यह बतलाया मर्म।।
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