ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।
अथ आठवाँ अध्याय : अक्षर ब्रह्म योग
सात प्रश्न अर्जुन करें, यह सुन कृपा निकेत।।
लगे बताने भक्त को, सकल ज्ञान का सार।
जिसको सुन कर, जान कर, जग से हो निस्तार।।
अर्जुन बोले, है ब्रह्म कौन, अध्यात्म कर्म क्या पुरुषोत्तम।
अधिभूत और अधिदैव कौन, माधव मुझको समझाओ तुम।।१।।
अधियज्ञ कौन कहलाता है, इस तन में वह रहता कैसे।
बतलाओ अन्तकाल उसको नियतात्म जान पाता जैसे।।२।।
प्रभु बोले, अक्षर ब्रह्म समझ, जो आत्मभाव अध्यात्म जान।
प्राणी को उद्भव बोध रहे इसको ही भारत कर्म मान।।३।।
जो नश्वर है अधिभूत वही, ब्रह्मा अधिदैव कहाते हैं।
अन्तर्यामी, हर तन वासी, मुझको अधियज्ञ बताते हैं।।४।।
मेरा सुमिरन करते-करते, जो अन्त काल में तजता तन।
इसमें कुछ भी सन्देह नहीं, उस का मुझसे हो जाय मिलन।।५।।
जिसकी स्मृति मन में रहती, तन जीव छोड़ता है जिस पल।
अर्जुन उससे ही भावित हो, नव जन्म मिले सिद्धान्त अटल।।६।।
इसलिए युद्ध कर हे अर्जुन, मेरा सुमिरन करते-करते।
सन्देह नहीं मिल जाऊँगा, मुझमें मन बुद्धि लगा यदि दे।।७।।
जो अपना मन एकाग्र किए, अभ्यास योग का करते हैं।
हे पार्थ, निरन्तर चिन्तन कर, उस परम पुरुष में मिलते हैं।।८।।
सर्वज्ञ, सनातन सूक्ष्म, सदा शासक, सबको करता धारण।
संज्ञानी, सूर्य समान वर्ण, ऐसे अचिन्त्य का कर चिन्तन।।९।।
तब भक्ति युक्त हो अन्त समय, मन अचल योग बल के द्वारा।
भृकुटी में प्राण निवेशित कर, पा परम पुरुष तज तन कारा।।१०।।
वेदज्ञ जिसे अक्षर कहते, जो वीतराग यति पाते हैं।
साधक इन्द्रिय संयम करते, वह पद तुमको समझाते हैं।।११।।
इन्द्रिय-द्वारों को रोक सभी, मन को उर में ही स्थित कर।
लगता जो योग धारणा में, मूर्धा में प्राण प्रतिष्ठित कर।।१२।।
उच्चारण ओम ब्रह्म का हो, मेरा चिन्तन करता है जो।
पाता है नित्य परम पद को, इस भाँति देह तजता है जो।।१३।।
मुझमें ही सदा लीन रह कर, जो मेरा ही सुमिरन करता।
वह नित्य युक्त योगी अनन्य, उसको मैं सदा सुलभ रहता।।१४।।
इस तरह परम पद पा योगी, फिर मुझमें ही मिल जाते हैं।
दुःख के घर नश्वर इस जग में, वे नहीं लौट कर आते हैं।।१५।।
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