ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
सुर को पूजे सुरलोक मिले, पितरों से पितृलोक पाते।
भूतों को पूजे भूत बनें, मुझको पूजे मुझमें आते।।२५।।
रख भक्तिभाव श्रद्धा से दे-फल, पुष्प, पत्र, जल भक्त यदा।
मैं बँधा प्यार में लेता यह उपहार मुझे स्वीकार सदा।।२६।।
जो कर्म करो, जो खाते हो, तप दान और जो करो हवन।
अर्जुन श्रद्धा के भाव सहित, सब कर्म मुझे कर दो अर्पण।।२७।।
कर्मों का बन्धन तोड़, शुभ-अशुभ फल से तुम बच जाओगे।
संन्यास योग से युक्त, मुक्त जग से, तुम मुझको पाओगे।।२८।।
मैं प्रेम-द्वेष से विलग, सभी जीवों में रखता हूँ समता।
पर मुझे भक्त जो भजते हैं, उनको भजता उनमें रहता।।२९।।
चाहे हो बहुत दुराचारी, यदि हो अनन्य, मुझको भज ले।
वह साधु मानने योग्य पार्थ, दृढ़ निश्चय यदि मन में कर ले।।३०।।
धर्मात्मा उसे बनाता हूँ, वह परमशांति में करे वास।
कौन्तेय जान लो यह रहस्य भक्तों का ना होता विनास।।३१।।
हो अधम योनियों में उपजा, या वैश्य, शूद्र हो, नारी हो।
उत्तम गति को पाता अवश्य, आता यदि शरण हमारी वो।।३२।।
राजर्षि और शुचि विप्रवंश के भक्तों का फिर क्या कहना।
क्षण भंगुर दुखमय नर तन पा, तुम सदा मुझे भजते रहना।।३३।।
मुझमें मन रमा, भक्त हो जा, मेरा ही पूजन, मुझे नमन।
पाओगे मुझको मेरे हो, आत्मा से कर लो पारायण।।३४।।
सब तज हरि भज व्रज शरण, प्रभु का कहना मान।।
इस नौवें अध्याय का, पाठ करे उठ प्रात।
ध्यान प्रथम श्रीकृष्ण का, सुख संपति हो प्राप्त ।।
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