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श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।


अर्जुन बोले, यह ध्यान योग जो बतलाते हो मधुसूदन।
ना सिद्ध कभी हो पाता है, मन की चंचलता के कारण।।३३।।
हे कृष्ण, हठी, बलशाली है मन चंचल और बवाली है।
इसका निग्रह अत्यन्त कठिन, गति वायु तरंगों वाली है।।३४।।
प्रभु बोले, निग्रह है दुरूह, मन चंचल है, सन्देह नहीं।
पर इसको वश में कर सकते, अभ्यास और वैराग्य यही।।३५।।
जिसका मन वश में नहीं पार्थ, वह योग नहीं कर सकता है।
योगी तो केवल उसे कहो, जिसका मन वश में रहता है।।३६।।
अर्जुन ने पूछा, शुरू योग, श्रद्धा से कर मन हट जाता।
तब योग सिद्धि तो मिली नहीं, हे नाथ, कौन गति वह पाता।।३७।।
जग के भोगों से दूर रहा, परमात्म-मार्ग से भी विचलित।
बादल-सा होकर छिन्न-भिन्न, दोनों लोकों में उद्वेलित।।३८।।
उस योग भ्रष्ट की क्या गति है, सन्देह यही मन में मेरे।
तुम-सा दूसरा नहीं माधव, जो इस संशय को दूर करे।।३९।।
माधव बोले, उस जन का भी, परलोक लोक में नहीं नाश।
कल्याण-मार्ग के राही का, कैसे हो सकता कहीं ह्रास।।४०।।
ये योग-भ्रष्ट जा स्वर्गलोक, बहुकाल वहाँ सुख पाते हैं।
फिर अति पुनीत श्रीमन्तों के घर नया जन्म ले आते हैं।।४१।।
या उच्च योगियों के घर में, होता है उनका पुनर्जन्म।
इस भाँति जन्म उनको मिलता, जो भाग्यवान, यह सुनो मर्म।।४२।।
तब पूर्व जन्म के साधन से, फिर योग-मार्ग पर चलते हैं।
कुरुनन्दन ऐसे ज्ञानी जन दृढ़ता से साधन करते हैं।।४३।।
पिछले अभ्यासों के कारण तज भोग, योग की ओर चलें।
जिसमें जाग्रत है योग-वृत्ति, कर्मों में फिर वह कहाँ ढले।।४४।।
नानाविध अभ्यासों द्वारा, सब पाप दूर हो जाते हैं।
ऐसे प्रयास से सिद्धि मिले, फिर वही परम पद पाते हैं।।४५।।
हो ज्ञानवान या कर्मलीन, या तपी घोर तप में उलझा।
इन सबसे योग-मार्ग उत्तम, इसलिए पार्थ योगी बन जा।।४६।।
पूरी श्रद्धा मुझमें रखकर जो मन से मुझको भजता है।
वह सभी योगियों से महान, उसकी ना कोई समता है।।४७।।

इति छठवां अध्याय यह, आत्म संयमी योग।
नारायण नर से कहें, मन का करो नियोग।।
ज्ञान, कर्म, जप, दान, तप योग बिना बेकार।
सब तज हरि भज, मन रमा, हो जाये भवपार।।

 

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