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ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।

।। ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।

अथ सातवां अध्याय : ज्ञान विज्ञान योग

भक्तों की चर्चा हुयी, विह्वल श्री भगवान।
बिना प्रश्न करने लगे, निज जन का गुणगान।।
सुन लो अर्जुन भक्त पर, मेरी प्रीति अपार।
एक बार विश्वास रख, करो भक्ति स्वीकार।।


प्रभु बोले, मेरे आश्रित हो, मन लगा योग कर लो अर्जुन।
संदेह नहीं पा जाओगे मुझको, यह भेद जरा लो सुन।।१।।
तुमको रहस्य बतलाता हूँ, समझो मुझसे यह परम ज्ञान।
फिर कुछ भी ज्ञात नहीं करना, यदि इसको तुमने लिया जान।।२।।
हे पार्थ, हजारों लोगों में, मुझको पाने की सिद्धि विरल।
यदि कुछ प्रयास करता कोई, उसको भी मिलना नहीं सरल।।३।।
ये अहंकार, मन, बुद्धि और जल, अनल, अनिल, यह गगन, धरा।
हे महाबाहु, ये सब मिल कर मम अष्ट प्रकृतियाँ हैं अपरा।।४।।
जड़ प्रकृति यही है गुडाकेश, जो जग को धारण करती है।
अब परा प्रकृति का रूप सुनो, जो जीव रूप में रहती है।।५।।
मेरी ही युगल प्रकृतियाँ ये, जिनसे जग का हो रहा सृजन।
मुझमें ही फिर जग लय होता, इस सकल सृष्टि का मैं कारण।।६।।
हे अर्जुन इस जग का कारण कोई ना बढ़ कर है मुझसे।
सारा जग वैसे गुँथा हुआ, हैं सूत्रबद्ध मणियाँ जैसे।।७।।
चन्द्रमा, सूर्य में मैं प्रकाश, कौन्तेय जलों में मैं हूँ रस।
वेदों में हूँ ओंकार, गगन में शब्द और नर में पौरुष।।८।।
मैं ही सुगन्ध हूँ धरती में, पावक में हूँ मैं तेज रूप।
हूँ देह धारियों में जीवन, तपियो में तप, हे भरत भूप।।९।।
हे पार्थ, जगत के जीवो में, मुझको ही बीज अनादि जान।
तेजस्वी में हूँ तेज रूप, हूँ बुद्धि रूप जो बुद्धिमान।।१०।।
वासना-राग से रहित शक्ति, बन रहता हूँ बलवानों में।
मैं धर्म सहित हूँ काम पार्थ, सब जीवों में, इन्सानों में।।११।।
मेरे द्वारा ही होते हैं, सत, रज, तम के ये सभी भाव।
पर मेरा उनमें वास नहीं, उनको भी मुझमें नहीं ठाँव।।१२।।
इन तीन गुणों के भावो से, मोहित रहता यह जग सारा।
कैसे प्राणी मुझको जानें? मैं अविनाशी सबसे न्यारा।।१३।।
त्रिगुणात्मक मेरी माया से, निस्तार नहीं सब पाते हैं।
माया को वे ही पार करें, जो शरण हमारी आते हैं।।१४।।
माया ने जिनका ज्ञान हरा, जो पाप-कर्म मे लग जाते।
आसुरी वृत्ति के नीच, मूढ़ ही मेरी शरण नहीं आते।।१५।।

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