ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
जो अधिक भूख से खाता है, या जो है निराहार रहता।
अर्जुन वह सिद्धि नहीं पाता, जो बहुत अधिक सोता-जगता।।१६।।
खाता-पीता, सोता-जगता, हे भारत नित्य नियम से जो।
जो नियमबद्ध हो कर्म करे, दुःख नाशक योग सिद्ध उसको।।१७।।
जब चित्त पुरुष का वश में हो, परमेश्वर में लग जाता है।
हो जाता जब कामना रहित, बस वही योग कहलाता है।।१८।।
ज्यों पवन-प्रेरणा रहित दीप की, लौ ना रहती है चंचल।
वैसे ही योगी का मन भी, साधना मार्ग पर रहे अचल।।१९।।
अभ्यास योग का करने से, जब चित्त शांत हो जाता है।
तब योगी शुद्ध बुद्धि द्वारा, निज में परमात्मा पाता है।।२०।।
ऐसा योगी ही पाता है, अति उत्तम सुख इन्द्रियातीत।
यह बुद्धि ग्राह्य सुख पाने पर पथ से ना होता है विचलित।।२१।।
उत्तम इस जग में वस्तु नहीं, परमात्म-प्राप्ति रूपी सुख से।
उस परम पुरुष को पा योगी विचलित ना हो पाता दुःख से।।२२।।
कहते हैं इसको ध्यान योग, इसमें दुःख का संयोग नहीं।
दृढ़ निश्चय से हे गुडाकेश, मन लगा साधना करो यही।।२३।।
हे भरत श्रेष्ठ, संकल्प सहित, सारी इच्छाओं को तजकर।
मन द्वारा सभी इन्द्रियों को दृढ़ता से निज वश में रखकर।।२४।।
धीरज से प्रभु का ध्यान धरो, जग छूटेगा धीरे-धीरे।
मन को आत्मा में लीन रखे, विषयों का चिन्तन नहीं करे।।२५।।
यह मन चंचल, संसारी है, विषयों की ओर अगर जाये।
तब योगी इसका नियमन कर, ईश्वर की ओर खींच लाये।।२६।।
जब मन का रजगुण शान्त और सारे पातक मिट जाते हैं।
ऐसे ही ब्रह्मरूप योगी, सर्वोतम सुख को पाते हैं।।२७।।
निष्कलुष आत्मा को कर जो, मन सदा लगाये रहता है।
परमात्म-प्राप्ति रूपी सुख का जीते-जी अनुभव करता है।।२८।।
इस तरह योग युत जो रहते, वे समदर्शी कहलाते हैं।
सबको अपने में देख रहे, अपने को सब में पाते हैं।।२४।।
जो पुरुष समझता है व्यापक, सब में मुझको मुझ में सबको।
मैं उसे देखता रहता हूँ, वह सदा देखता है मुझको।।३०।।
सब जीवों में जो मुझे मान, एकत्व भाव से भजता है।
वह कहीं रहे, कुछ करे, किन्तु मुझमें ही स्थित रहता है।।३१।।
सारे जीवों के सुख-दुःख को जो अपना ही सुख-दुःख जाने।
वह योगी परम श्रेष्ठ भारत, इस सकल सृष्टि को सम माने।।३२।।
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