ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
कुछ योगी सभी इन्द्रियों को अपने वश में कर लेते हैं।
कुछ योगी विषयों में रमते, पर मन से तो तज देते हैं।।२६।।
कुछ प्राणों और इन्द्रियों की, सब गति समाधि में तजते हैं।
यह ही समाधियुत यज्ञ जहाँ, सच्चिदानन्द को भजते हैं।।२७।।
कुछ द्रव्य-दान, कुछ तप करते, कुछ योग, यज्ञ में रमते हैं।
स्वाध्याय ज्ञान रत कुछ होते सब निज व्रत में दृढ़ रहते हैं।।२८।।
पूरे अपान में प्राण प्रथम, फिर कुम्भक प्राण अपान करे।
रेचन अपान का करे प्राण, हैं प्राणायामपरायण ये।।२९।।
कुछ नियताहारी प्राणों का, प्राणों में हवन किया करते।
ये सभी यज्ञविद् यज्ञों से, अपने पापों को हैं हरते।।३०।।
कुरुश्रेष्ठ, यज्ञ कोई भी हो उसका फल ब्रह्म सनातन है।
जिसने ना कोई यज्ञ किया, परलोक कहाँ, सुख यहाँ न है।।३१।।
इस तरह यज्ञ होते अनेक, जिनको ये वेद बताते हैं।
जो कर्म यज्ञ को ही जाने, वै कर्म मुक्त कहलाते हैं।।३२।।
धन के अधीन हैं अन्य यज्ञ, यह ज्ञान यज्ञ ही श्रेयस्कर।
इस ज्ञान यज्ञ को करने से, सब कर्म नष्ट होते सत्वर।।३३।।
गह शरण, कपट तज ज्ञान पूछ, पाओगे तुम सेवा द्वारा।
तत्वज्ञानी ऋषियों से ही, ज्ञानोपदेश मिलता सारा।।३४।।
यह ज्ञान प्राप्त कर हे भारत, फिर मोह नहीं तुम पाओगे।
सब जीवों में तुम, तुममें मैं, यह समझ मुझी में आओगे।।३५।।
जग के जितने भी पापी हैं, उनसे भी बढ़कर पापबन्त।
होकर सवार इस ज्ञान रूप, तरणी पर तर जाता तुरन्त।।३६।।
हे गुडाकेश, ज्यों अग्नि-ज्वाल, ईंधन को सारे भस्म करे।
यह ज्ञान-अग्नि भी वैसे ही, कर भस्मसात् सब कर्म हरे।।३७।।
दूसरी वस्तु कोई जग में ना ज्ञान समान पुनीत परम।
पर कर्मयोग में सिद्ध पुरुष, पा जाते हैं यह ज्ञान स्वयम्।।३८।।
जो श्रद्धावान जितेन्द्रिय हैं, वे कर लेते हैं प्राप्त ज्ञान।
फिर परम शान्ति को पाते हैं, जब हो जाते हैं ज्ञानवान।।३९।।
श्रद्धा-विरहित, संदेहयुक्त, जो अज्ञ नष्ट हो जाता है।
परलोक-लोक में कहीं रहे, संशयी नहीं सुख पाता है।।४०।।
हो योग-युक्त, कर्मों को तज, संदेह ज्ञान से कर वारण।
कर्मों में फिर वह बँधे नहीं, नित निज स्वरूप में करे रमण।।४१।।
अज्ञान-जन्य इस संशय को अब ज्ञान-खड्ग से शीघ्र हरो।
समभाव कर्मयोगी बनकर, अब उठो धनंजय युद्ध करो।।४२।।
योग बता प्रभु पार्थ में, उपजाते विश्वास।।
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