ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।
अथ पाँचवाँ अध्याय : कर्म संन्यास योग
कौन मार्ग स्वीकार कर, चलूँ पूछते पार्थ।।
अर्जुन बोले- प्रभु कर्म त्याग फिर कर्मयोग कर अनुशंसित।
मुझको क्यों भ्रम में डाल दिया, अब श्रेय मार्ग कहिए निश्चित।।१।।
प्रभु बोले, अर्जुन वैसे तो श्रेयस्कर होते ये दोनों।
पर सांख्ययोग निष्काम कर्म, में कर्मयोग ही सदा चुनो।।२।।
जो द्वेष, द्वन्द्व से मुक्त रहे, जो नहीं कामना कुछ करता।
हे महाबाहु! संन्यासी ही समझो, वह देह नहीं धरता।।३।।
अज्ञानी अलग मानते हैं, पण्डित जन ना कहते ऐसा।
है राह अलग पर लक्ष्य एक, फिर दोनों में अन्तर कैसा।।४।।
जो अव्यय पद ज्ञानी पाते, योगी भी उसको करें प्राप्त।
जो सांख्य कर्म को सम समझे, बस वही दृष्टि है सही पार्थ।।५।।
अर्जुन, यदि कर्मयोग ना हो, संन्यास नहीं मिल सकता है।
पर योग युक्त मुनि अति सत्वर, सच्चिदानन्द में मिलता है।।६।।
जो योग युक्त निर्मल मन है, इन्द्रियाँ सदा जिसकी वश में।
कर कर्म लिप्त वह होता ना, अपने को जो देखे सब में।।७।।
स्पर्श, घ्राण, खाना, चलना, साँसें लेना, सुनना, दर्शन।
बोलना, निमीलन, उन्मीलन, सोना, जगना फिर त्याग-ग्रहण।।८।।
ये सभी कर्म इन्द्रिय-आश्रित, आत्मा ना कुछ भी करता है।
जो सांख्ययोग तत्व ज्ञानी, वह यही मान कर चलता है।।९।।
आसक्ति रहित हो कर्म करे, अर्पित कर प्रभु के चरणों में।
पापों में लिप्त न हो वैसे, ज्यों पद्म पत्र रहता जल में।।१०।।
योगी आसक्ति त्याग करके, काया, मन, बुद्धि इन्द्रियों से।
उतना ही कर्म किया करते, आत्मा पबित्र हो जितने से।।११।।
फल इच्छा रहित कर्मयोगी, सच्चिदानन्द को पाता है।
पर जो सकाम हो कर्म करे, वह फल तक ही रह जाता है।।१२।।
मन से कर्मों का परित्याग, इन्द्रियाँ सभी निजवश में कर।
देही करवाये करे नहीं, रह इस नवद्वारी देह नगर।।१३।।
सारे जीवों के कर्मों को, कर्त्तापन और कर्मफल को।
परमेश्वर नहीं बनाता है, माया ही रचा करे इनको।।१४।।
शुभ कर्म. करो या पापकर्म, परमेश्वर करता नहीं ग्रहण।
अज्ञान ज्ञान को ढँक लेता, करता जीवों का सम्मोहन।।१५।।
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