ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
उसको वैसा आश्रय देता, जो जैसे पास पधारे हैं।
हे पार्थ, पथिक कोई भी हो, पर सारे मार्ग हमारे हैं।।११।।
कर्मों की सिद्धि चाहते जो, नाना देवों को ध्याते हैं।
भूमण्डल के प्राणी इससे, अतिशीघ्र सिद्धि पा जाते हैं।।१२।।
गुण-कर्म विभाजित चार वर्ण, इनको मेरी रचना जानो।
यद्यपि मैं इनका कर्त्ता हूँ, पर मुझे अकर्त्ता ही मानो।।१३।।
न मुझे कर्म फल की इच्छा, न कर्म लिप्त करते मुझको।
वह भी न कर्मों में बँधता, यह तत्व जान लेता है जो।।१४।।
पहले के मुक्ति कामियों ने, कर कर्म मर्म यह जान लिया।
तुम भी वैसे ही करो पार्थ, जैसे उन सबने कर्म किया।।१५।।
करणीय कौन? क्या अकरणीय? ज्ञानी भी समझे नहीं इसे।
इसलिए कर्म समझाऊंगा, जिससे छूटो भव बन्धन से।।१६।।
शुभ, अशुभ कर्म अथवा अकर्म इनका तुम विधिवत करो श्रवण।
अर्जुन तुम ध्यान लगा समझो, कर्मों की गति है बहुत गहन।।१७।।
जो कर्मों में देखे अकर्म, जब कर्म-त्याग में कर्म रहे।
वह सब कर्मों का कर्त्ता है, उसको ही ज्ञानी युक्त कहे।।१८।।
जो पुरुष कर्म सब करता है, संकल्प और इच्छा तज कर।
कर ज्ञान-अग्नि में कर्म भस्म, पंडित कहलाता पृथ्वी पर।।१९।।
जो कर्म और फल मोह त्याग, परितुष्ट निराश्रित रहता है।
सारे कर्मों से जुड़ा हुआ, फिर भी वह कुछ ना करता है।।२०।।
जिसके तन, मन वश में रहते, संग्रही वृत्ति को त्याग दिया।
उससे न कोई पाप हुआ केवल शरीर से कर्म किया।।२१।।
ईर्ष्या तजकर हो द्वन्द्व मुक्त, संतुष्ट सदा जो रहता है।
पाने खोने में हो समान, कर कर्म न उनसे बँधता है।।२२।।
आसक्तिहीन, परमात्मलीन, जो कर्म यज्ञ-हित करते हैं।
उन मुक्त प्राणियों के भारत, सब कर्म लीन ही रहते हैं।।२३।।
हवि, स्रुवा, अग्नि, आहुति, होता, इन सबको जानो ब्रह्म रूप।
यह कर्म-समाधि ब्रह्ममय है, फल परमेश्वर, हे भरत भूप।।२४।।
कुछ योगी देव यज्ञ करते, सब वस्तु करें प्रभु को अर्पण।
पर ज्ञान यज्ञ में ब्रह्म अग्नि, जीवात्मा का ही करे हवन।।२५।।
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