ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः।।
अथ चौथा अध्याय : ज्ञान-कर्म संन्यास योग
माधव फिर समझा रहे, ज्ञान-कर्म संन्यास।।
प्रभु बोले, अव्यय कर्म योग मैंने सविता को समझाया।
रवि ने मनु को, मनु ने इसको, इक्ष्वाकु नृपति को बतलाया।।१।।
यह परम्परा फिर चल निकली, राजर्षिजनों को हुआ ज्ञान।
पर अर्जुन बहुत समय बीता, ना रहा धरा पर जरा भान।।२।।
यह वही पुरातन योग, जिसे मैंने तुमको बतलाया है।
तुम मेरे भक्त सखा इससे, उत्तम रहस्य समझाया है।।३।।
अर्जुन बोले, रवि आदि सृष्टि, पर आप जन्म ले अब आये।
कैसे सविता को समझाया, यह भेद जान ना हम पाये।।४।।
माधव बोले, हम दोनों के, हो गए अनेकों जन्म यहाँ।
अर्जुन तुमको कुछ ज्ञान नहीं, मैं बतला सकता कहाँ-कहाँ।।५।।
यद्यपि मैं अज, अविनाशी हूँ, सारे जीवों का हूँ ईश्वर।
निज माया से मैं शक्ति सहित, अवतार ले रहा पृथ्वी पर।।६।।
तुम सुनो धनंजय धरती पर जब-जब होता है धर्म हनन।
उत्थान पाप का होता जब, मैं करता अपना स्वयं सृजन।।७।।
संहार दुष्ट-दुर्जन का कर, उद्धार सज्जनों का करता।
धरती पर धर्म-प्रतिष्ठा हित, हर युग में अर्जुन अवतरता।।८।।
हे पार्थ! तत्व यह जो जाने- है दिव्य हमारा जन्म-कर्म।
वह मुझको ही पा जाता है, होता ना उसका पुनर्जन्म।।९।।
भय, राग, क्रोध सबको तजकर, जो मेरा ध्यान लगाते हैं।
इस ज्ञान रूप तप से पुनीत, मुझमें ही वे मिल जाते हैं।।१०।।
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