ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
पर कर्मों का अज्ञानी से, है त्याग कराना उचित नहीं।
सत्कर्म स्वयं करके ज्ञानी, कर दे सुधार है, राह यही।।२६।।
सब कर्म प्रकृति के गुण से ही, होते अर्जुन उत्पन्न जहाँ।
पर मूढ़ अहंकारी कहते-, मैं ही करता हूँ कर्म यहां।।२७।।
गुण और कर्म का यह विभाग, जो इसका तत्व समझता है।
ये गुण ही कर्म कराते हैं, यह जान न इनमें फँसता है।।२८।।
इन प्रकृति गुणों से हो विमूढ़, जो गुण-कर्मों में फँसते हैं।
उस मूढ़ और अज्ञानी को, ज्ञानी न विचलित करते हैं।।२९।।
तज शोक, कामना, ममता को, मुझको सब कर्म समर्पित कर।
करके विवेकयुत बुद्धि पार्थ इस कर्म रूप रण में संहर।।३०।।
तज दोष दृष्टि श्रद्धा से जो, लेता मेरी यह बात मान।
जो इसका अनुसर्त्ता अर्जुन, उसको कर्मों से मुक्त जान।।३१।।
रख दोष-दृष्टि जो अज्ञानी, आचरण न यह कर पाते हैं।
वे ही विपरीत कर्म करके, कौन्तेय नष्ट हो जाते हैं।।३२।।
होते स्वभाव के वश में ही, ज्ञानी अज्ञानी सभी पार्थ।
चेष्टारत ज्ञानी भी होते, क्यों बनते हो फिर हठी व्यर्थ।।३३।।
भोगों में सभी इन्द्रियों के, हैं राग-द्वेष स्थित रहते।
ये दोनों शत्रु मोक्ष के हैं, ज्ञानी जन ही इनसे बचते।।३४।।
है श्रेष्ठ पराये धर्मों से, गुणहीन धर्म भी निज उत्तम।
परधर्म भयावह सदा पार्थ, मरना स्वधर्म में श्रेष्ठ परम।।३५।।
अर्जुन बोले-फिर हे केशव, यह मनुज पाप क्यों करता है।
होता है वह किससे प्रेरित, अपने स्वभाव से फिरता है।।३६।।
प्रभु बोले- काम रजोगुण से पैदा इसको ही क्रोध जान।
बहुभक्षक और महापापी, इसको ही अपना शत्रु मान।।३७।।
जैसे झिल्ली से गर्भ, धुएँ से अग्नि और मल से दर्पण।
वैसे ही काम रूप-तम से, होता विवेक का आच्छादन।।३८।।
कौन्तेय काम रूपी ज्वाला, न कभी शान्त होने वाली।
ज्ञानी की बैरिन यही पार्थ, सारा विवेक हरने वाली।।३९।।
मन, बुद्धि और इन्द्रियगण में, यह काम विचरता रहता है।
पहले विवेक को हर करके, प्राणी को मोहित करता है।।४०।।
इन्द्रियगण को वश में रख कर, हे भरत श्रेष्ठ तू कर विचार।
विज्ञान-ज्ञान के नाशक इस, पापी को दोगे शीघ्र मार।।४१।।
इस तन से सबल इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रिय से पर यह होता मन।
मन से पर बुद्धि, बुद्धि से पर, इस काम तत्व का संवर्धन।।४२।।
इसलिए बुद्धि से इसे जान, अपने को निज में ही धारो।
हे महाबाहु! इस काम-रूप, दुर्जय दुश्मन को तुम मारो।।४३।।
अनासक्त हो कर्म कर, यह ही इसका सार।।
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