ई-पुस्तकें >> यादें (काव्य-संग्रह) यादें (काव्य-संग्रह)नवलपाल प्रभाकर
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बचपन की यादें आती हैं चली जाती हैं पर इस कोरे दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।
पूछा हवा ने
तुम्हारी आँखें निस्तेज सी क्यों
जिनमें कोई सपना नहीं क्यों
चेहरे पर उदासी है छाई
जैसे तुम्हारा अपना नहीं हो
या दिल तोड़ दिया किसी ने।
एक दिन पूछा मुझसे हवा ने।
फिर मैंने जवाब दिया उसको
मेरा हृदय है बिल्कुल सच्चा
बांटता फिरता हूँ प्रेम सभी को
हर काम मेरा बिगड़ जाता है
चलता हूँ जिस काम को करने
एक दिन पूछा मुझसे हवा ने।
फिर हवा हठीली मुस्कुराई
रोते हुए फिर वह चिल्लाई
मुझे देख रहे हो तुम क्या
मैं यूं नहीं नहीं बनी हूँ निष्ठूर
कई ठोकरें खिलाई जमाने ने
एक दिन पूछा मुझसे हवा ने।
मैं भी तुम्हारी तरह ही
बिल्कुल शीतल हृदय थी
लोंगों के दुख दर्दो को
अपना समझ अपनाती थी
निष्ठूर लोगों ने दिये गम सारे।
एक दिन पूछा मुझसे हवा ने।
तब से लेकर आज तक
गमों में ही पली हूँ मैं।
उन्हीं गमों से पली बढ़ी हूँ
उन्हीं से निष्ठुर बनी हूँ
तभी तो चंचल लगती हूँ मैं।
एक दिन पूछा मुझसे हवा ने।
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