ई-पुस्तकें >> यादें (काव्य-संग्रह) यादें (काव्य-संग्रह)नवलपाल प्रभाकर
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बचपन की यादें आती हैं चली जाती हैं पर इस कोरे दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।
नौ कन्या
आज सुबह ही
बीवी ने मेरी
मुझे धंधेड़ा
और उठाया।
आँखें मलते मैं उठ बैठा
क्या है भाग्यवान ,
क्यों शोर मचाया
क्या कहीं आँधी है आई
या फिर भूकंप है आया
कभी तो चैन से सोने दो
क्यों घर को सिर पे उठाया।
ना रात को चैन
ना दिन में चैन
शादी करके बहुत पछताया।
यह सुन बीवी तुनक कर बोली
जब देखो तुम्हें तो मैं
आती हूँ नजर विष की गोली।
अब हिस्से आई हूँ तुम्हारे
अपने आप मुझे तुम भुगतो।
पर आज पता है तुम्हें क्या
आज नवराता अंतिम माँ का
और व्रत है अंतिम मेरा
मुझे करना है उद्यापन माँ का।
पूरा सामान तैयार है अब तो
बस बारी है पूजा की
पूजा में चाहिए नौ कन्या
नौ व्रत किये हैं मैंने
पूरी नौ की नौ कन्या।
सुन उठा बिस्तर से मैं
लेने चला पडोस में कन्या।
देख मुझे तब अचरज हुआ
पड़ोस में ना थी कोई कन्या।
घंटे घूमा दो घंटे घूमा
नौ की बात तो बिल्कुल अलग थी
मुझे मिली ना कोई एक कन्या।
घर आया तो बीवी बैठी थी
देख अकेला मुझे वह बोली।
देर इतनी लगाई कहां
साथ तुम्हारे नहीं हैं कन्या
यह सुन मैं रोने लगा।
इस बात का प्रिये मैं
खुद ही जिम्मेवार हूँ।
पैसे मैंने खूब कमाए
पेशे से मैं डॉक्टर हूँ।
अल्ट्रासाऊंड कर अबोर्सन किये
कन्या भ्रूण गर्भ से गिरा दिये।
पड़ोस में सभी के यहां हैं लड़के
कन्या नौ कहां से लाऊं।
मेरी अपनी दो कन्याएं
जब खुद मैंने मरवा डाली।
फिर भी अब खुद मैं ये सोचूं ,
कहाँ मैं जिमाऊं दुर्गा और काली।
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