ई-पुस्तकें >> यादें (काव्य-संग्रह) यादें (काव्य-संग्रह)नवलपाल प्रभाकर
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बचपन की यादें आती हैं चली जाती हैं पर इस कोरे दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।
मेरा घर
घर मेरा महकता मधुबन
उसमें खिले तरह-तरह के प्रसून,
कोई प्रौढ़ है अभी तो
कोई अभी बिल्कुल नन्हा है फूल।
पिता वह प्रौढ़ गुलाब है
जिसकी खुशबू माना कभी
फैली थी घर के हर कोने में
अब पत्तियाँ भी झड़ चुकी हैं
बचा है खाली बीजों का डंठल
उस डंठल में खुशबू के कतरे को
अब भी कहीं ना कहीं ढूंढता हूँ।
घर मेरा महकता मधुबन
उसमें खिले तरह-तरह के प्रसून।
माँ भी कभी न मुरझाने वाला
झुर्रियों वाला कोमल केवड़े का फूल है
जिसकी खुशबू आँगन महकाती है
जिसपे लदी सामाजिक दायित्वों की धूल है,
ममता बदली आज भी छलकाती है,
माँ को सीने से लगा कर
आज भी उसकी ममता पाता हूँ।
घर मेरा महकता मधुबन
उसमें खिले तरह-तरह के प्रसून।
पत्नी खिला चाँदनी का फूल है
जिसमें महक तो माना है नहीं
मगर रात में लगती है ताजमहल
रहती हमेशा खिली हुई सी
प्रेम से ओत - प्रोत है
वह प्रेम मेरे लिए है बस
नजरें कटाक्ष निशाना अचूक।
घर मेरा महकता मधुबन
उसमें खिले तरह-तरह के प्रसून।
नन्हीं कली है गुडिया मेरी
खेलती कूदती मनोरंजन करती
हंसती तो बिजली फीकी पड़ जाती
कानों में रस घुल जाता जो बोलती
मन मेरा डोल पड़ता
जब वह करती है तुतला कर बातें
मिश्री से मीठी उसकी वाणी सून।
घर मेरा महकता मधुबन
उसमें खिले तरह-तरह के प्रसून।
अन्त में बचा मैं
मेरा परिचय मैं क्या दूं
मैं पतझड़ का खिला फूल हूँ
जिसमें न कोई रंग ना कोई खुशबू है
हिलता डुलता हूँ हवा के झोंको से
आने वाली हर मुसीबत को
सहने को बस मैं तैयार हूँ।
घर मेरा महकता मधुबन
उसमें खिले तरह-तरह के प्रसून,
कोई प्रौढ़ है अभी तो
कोई अभी बिल्कुल नन्हा है फूल।
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