| ई-पुस्तकें >> यादें (काव्य-संग्रह) यादें (काव्य-संग्रह)नवलपाल प्रभाकर
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बचपन की यादें आती हैं चली जाती हैं पर इस कोरे दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।
 
आँखों का मोह
 चेहरे पर एक अनोखा तेज
 लिये घूम रहा एक संत
 हर घर और हर द्वार 
 लिये अपने कर में भिक्षा पात्र
 मिल जाता जो भी उसे, 
 बस कर लेता उसी में सब्र।
 
 एक बार वह संत गया एक ऐसे द्वार
 जिसमें रहती थी एक औरत
 द्वार पर खड़े होकर 
 मांगी जो भिक्षा,
 आई लेकर कटोरे में
 कुछ रसीला वह पकवान
 देकर कहने लगी वह औरत
 हे भगवान आया करो
 लेने भिक्षा रोज यहां।
 साधु के मन में मैल न था
 सो लेने अगले दिन पहुंचा
 मगर यह क्या आज पहले ही 
 लेकर कटोरा कर में खड़ी थी
 दे साधु को भिक्षा का कटोरा 
 साधु से यूं कहने लगी 
 हे साधु महाराज मुझे तो 
 आपकी आँखें अच्छी लगी।
 
 कुछ न बोला साधु वहां 
 दूसरे दिन साधु फिर वहां गया
 दोनों हाथों में रखे थे नेत्र
 आँखो से बह रहा था रक्त
 देख कर साधु का हाल 
 औरत का मन हुआ बेहाल
 ये क्या किया महाराज 
 जो तुम्हें अच्छा लगा वो 
 तुम्हें दे दिया है मैंने
 इनमें मेरा नहीं है मोह।
 
 चरण पकड़ लिये साधु के 
 और गिड़गिड़ाकर लगी रोने 
 मुझे क्षमा करो साधु देव 
 वासना का भाव था मेरे अंदर 
 मगर देखकर तुम्हारा त्याग 
 अन्तरात्मा ने की है पुकार 
 नेत्रों से फूटी अश्रुधार 
 करने लगी विलाप वह
 साधु छोड़ विलाप करती 
 वहां से बस चला गया।
 
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