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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


हमारे व्यक्तित्व का यह दिव्य केन्द्र मानो पाँच आवरणों से आच्छन्न है -  
अन्नमय कोश के अन्तर्गत शरीर तथा इन्द्रियाँ आती हैं।

प्राणमय कोश जो भोजन पचाना, रक्तसंचार, श्वास-प्रश्वास तथा शरीर की अन्य क्रियाएँ सम्पन्न करता है।

मनोमय कोश मन के चिन्तन, संवेदन तथा आवेग आदि क्रियाओं द्वारा पहचान में आता है।

विज्ञानमय कोश यह व्यक्ति की निश्चयात्मिका शक्ति है। यह विवेक तथा इच्छाशक्ति का भी स्थान है।

आनन्दमय कोश का अनुभव गहन निद्रा के समय सुख के रूप में होता है।

प्रत्येक परवर्ती कोश पूर्ववर्ती की अपेक्षा सूक्ष्मतर तथा उसमें व्याप्त है। व्यक्तित्व के उच्चतर आयामों के साथ उत्तरोत्तर तादात्म स्थापित करना ही व्यक्तित्व विकास का तात्पर्य है। इस प्रकार केवल अन्नमय कोश के साथ एकात्म हुआ तथा अपने उच्चतर मानसिक कोश का उपयोग न करनेवाला व्यक्ति उन पशुओं से ज्यादा भिन्न जीवन नहीं बिताता, जिनका सुख-दुख इन्द्रियों तक ही सीमित रहता है।

इच्छाओं, पुरानी आदतों, गलत प्रवृत्तियों, आवेगों तथा बुरे संस्कारों द्वारा व्यक्त होनेवाले अपने निम्नतर मन के साथ संघर्ष करने से ही विकास होता है। हम अपने निम्नतर मन के साथ जितना ही कम तादात्म रखकर और अपने उच्चतर मन के साथ जितना ही अधिक तादात्म रखते हुए अपनी बुद्धि का प्रयोग करेंगे, उतना ही हमारा व्यक्तित्व होगा। इसमें अपने मन तथा इसकी पुरानी आदतों को वश में करने और नयी तथा हितकर आदतें डालने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। परन्तु यह संघर्ष ही सबसे बड़ा संघर्ष है, क्योंकि यह हमारी दिव्यता तथा उसके द्वारा हममें अर्न्तनिहित पूर्णता को अभिव्यक्त करके हमें सही मायनों में सभ्य बनाता है।

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