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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


लोगों में अन्तर्निहित दिव्यता तथा पूर्णता के प्रति उनमें चेतना जगाते स्वामीजी कभी थकते नहीं थे। वे चाहते थे कि यह दिव्यता हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में अभिव्यक्त हो। यहाँ तक कि वे इस दिव्यता की अभिव्यक्ति को ही मानवीय सभ्यता का एकमात्र पैमाना मानते थे -  ''सम्भव है कोई राष्ट्र समुद्र की लहरों को जीत ले, भौतिक तत्त्वों पर नियंत्रण कर ले, जीवन की उपयोगितावादी सुविधाओं को पराकाष्ठा तक विकसित कर ले, परन्तु इसके बावजूद हो सकता है कि उसे कभी यह बोध ही न हो सके कि जो व्यक्ति अपने स्वार्थ को जीतना सीख लेता है, उसी में सर्वोच्च सभ्यता होती है।''

''यह जगत् मानो एक व्यायामशाला के सदृश है - इसमें जीवात्माएँ अपने अपने कर्म के द्वारा व्यायाम कर रही हैं और इन व्यायामों के फलस्वरूप हम देव या ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं। अत. जिस वस्तु में ईश्वर की कितनी अभिव्यक्ति है, उसी के अनुसार उसका मूल्य निर्धारित होना चाहिए। मनुष्य में इस ईश्वरत्व की अभिव्यक्ति को ही सभ्यता कहते हैं।'''

हममें निहित यह देवत्व अनन्त सत्, अनन्त चित् और अनन्त आनन्द का आगार है। यह जितना ही अधिक अभिव्यक्त होता है, हम उतने ही अधिक स्थायी सुख की अनुभूति और परम ज्ञान की उपलब्धि करते हैं। व्यक्तित्व-विकास का सार है - इच्छाशक्ति को सबल बनाना।

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