लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> व्यक्तित्व का विकास

व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

94 पाठक हैं

मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


जब मनुष्य को ये संसारी बातें निस्सार प्रतीत होने लगती हैं, तब वह सोचता है कि उसे प्रकृति के हाथों में इस प्रकार का खिलौना बनकर उसमें बहते नहीं रहना चाहिये। यह तो गुलामी है। यदि कोई दो-चार मीठी बातें सुनाये, तो आदमी मुस्कुराने लगता है और जब कोई कड़ी बात सुना देता है, तो उसके आँसू निकल आते हैं। वह रोटी के एक टुकड़े का, एक साँस भर हवा का दास है; वह कपड़े-लत्ते का, स्वदेश-प्रेम का, अपने देश और अपने नाम-यश का गुलाम है। इस तरह वह चारो ओर से गुलामी के बन्धनों में फँसा है और उसका यथार्थ पुरुषत्व इन बन्धनों के कारण उसके अन्दर गड़ा हुआ पड़ा है। जिसे तुम मनुष्य कहते हो, वह तो गुलाम है। जब मनुष्य को अपनी इन सारी गुलामियों का अनुभव होता है, तब उसके मन में स्वतंत्र होने की इच्छा - अदम्य इच्छा उत्पन्न होती है। यदि किसी मनुष्य के सिर पर दहकता हुआ अंगार रख दिया जाय, तो वह मनुष्य उसे दूर फेंकने के लिये कैसा छटपटायेगा। ठीक इसी तरह वह मनुष्य, जिसने सचमुच यह समझ लिया है कि वह प्रकृति का गुलाम है, स्वतंत्रता पाने के लिये छटपटाता है।

पहले मुक्त बनो और तब चाहे जितने व्यक्तित्व रखो। तब हम लोग रंगमंच पर उस अभिनेता के समान अभिनय करेंगे, जो भिखारी का अभिनय करता है। उसकी तुलना गलियों में भटकने वाले वास्तविक भिखारी से करो। यद्यपि दोनों अवस्थाओं में दृश्य एक ही है, वर्णन भी शायद एक-सा है, पर दोनों में कितना भेद है! एक व्यक्ति भिक्षुक का अभिनय करके आनन्द ले रहा है और दूसरा सचमुच दुःख-कष्ट से पीड़ित है। ऐसा भेद क्यों होता है? इसलिए कि एक मुक्त है और दूसरा बद्ध। अभिनेता जानता है कि उसका यह भिखारीपन सत्य नहीं है, उसने यह केवल अभिनय के लिये स्वीकार किया है, परन्तु यथार्थ भिक्षुक जानता है कि यह उसकी चिर-परिचित अवस्था है और उसकी इच्छा हो या न हो, वह कष्ट उसे सहना ही पड़ेगा। उसके लिये यह अभेद्य नियम के समान है और इसीलिए उसे कष्ट उठाना पड़ता है। हम जब तक अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक हम केवल भिक्षुक हैं, प्रकृति के अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु ने ही हमें दास बना रखा है। हम सम्पूर्ण जगत् में सहायता के लिए चीत्कार करते फिरते हैं - अन्त में काल्पनिक सत्ताओं से भी हम सहायता माँगते हैं, पर सहायता कभी नहीं मिलती, तो भी हम सोचते हैं कि इस बार सहायता मिलेगी। इस प्रकार हम सर्वदा आशा लगाये बैठे रहते हैं। बस, इसी बीच एक जीवन रोते-कलपते आशा की लौ लगाये बीत जाता है और फिर वही खेल चलने लगता है।

* * *

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book