ई-पुस्तकें >> व्यक्तित्व का विकास व्यक्तित्व का विकासस्वामी विवेकानन्द
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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका
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अब यदि तुममें से कोई सचमुच ही इस विज्ञान का अध्ययन करना चाहता है, तो जिस दृढ़ निश्चय के साथ वह जीवन का कोई व्यवसाय शुरू करता है, वैसा ही या बल्कि उससे भी बढ़कर निश्चय के साथ इसे आरम्भ करना होगा।
व्यवसाय के लिये कितने मनोयोग की जरूरत होती है और वह व्यवसाय हमसे कितने कड़े श्रम की माँग करता है! यदि बाप, माँ, स्त्री या बच्चा भी मर जाय, तो भी व्यवसाय रुकने का नहीं। चाहे हमारे हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हों, चाहे व्यवसाय का हर घण्टा हमारे लिये पीड़ादायी ही क्यों न हो, फिर भी हमें व्यवसाय के जगह पर जाना ही होगा। यह है व्यवसाय और हम समझते हैं कि यह ठीक ही है और इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है।
यह विज्ञान किसी भी अन्य व्यवसाय की अपेक्षा अधिक लगन की अपेक्षा रखता है। व्यवसाय में तो अनेक लोग सफलता प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इस मार्ग में बहुत ही थोड़े, क्योंकि यहाँ पर मुख्यत: साधक के मानसिक गठन पर ही सब कुछ अवलम्बित रहता है। जिस प्रकार व्यवसायी, चाहे धनवान बन सके या न बन सके, कुछ कमाई तो अवश्य कर लेता है, उसी प्रकार इस विज्ञान के प्रत्येक साधक को कुछ ऐसी झलक अवश्य मिलती है, जिससे उसे विश्वास हो जाता है कि ये बाते सच हैं और ऐसे मनुष्य हो गये हैं, जिन्होंने इन सबका पूर्ण अनुभव कर लिया था।
अत्यन्त छोटा कर्म भी यदि अच्छे भाव के साथ किया जाय, तो उससे अद्भुत फल की प्राप्ति होती है। अतएव जो जहाँ तक अच्छे भाव से कर्म कर सके, करे। मछुआ यदि अपने को आत्मा समझकर चिन्तन करे, तो वह एक अच्छा मछुआ होगा। विद्यार्थी यदि अपने को आत्मा विचारे, तो वह एक श्रेष्ठ विद्याथीं होगा। वकील यदि अपने को आत्मा समझे, तो वह एक अच्छा वकील होगा।
एक वीर की भांति आगे बढ़ जाओ। बाधाओं की परवाह मत करो। यह देह भला कितने दिनों के लिए है? ये सुख-दुःख भला कितने दिनों के लिए हैं? जब मानव-शरीर प्राप्त हुआ है, तो भीतर की आत्मा को जगाकर कहो - मुझे अभय प्राप्त हो गया है।.. उसके बाद जब तक यह शरीर रहे, तब तक दूसरों को निर्भयता की यह वाणी सुनाओ - 'तत्वमसि', 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य बरान् निबोधत' - 'तुम वही ब्रह्म हो', 'उठो, जागो और लक्ष्य को प्राप्त किये बिना रुको मत'।
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