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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


जब हम समत्व की अद्भुत स्थिति में पहुँच जायेंगे अर्थात् साम्य भाव प्राप्त कर लेंगे, तब उन सभी वस्तुओं पर हमें हँसी आयेगी, जिन्हें हम दुःखों तथा बुराइयों का निमित्त कहते हैं। इसी को वेदान्त में मुक्तिलाभ कहा गया है। इसकी प्राप्ति का लक्षण यह है कि तब इस तरह के एकत्व तथा समत्व-भाव का अधिकाधिक बोध होगा। 'सुख-दुःख तथा जय-पराजय में सम'- इस प्रकार की मनःस्थिति मुक्तावस्था के निकट है।

जो इच्छा मात्र से अपने मन को केन्द्रों में लगाने या हटा लेने में सफल हो गया है, उसी का प्रत्याहार सिद्ध हुआ है। प्रत्याहार का अर्थ है - 'उल्टी ओर आहरण' अर्थात् खीचना - मन की बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मुक्त करके उसे भीतर की ओर खीचना। इसमें सफल होने पर हम यथार्थ में चरित्रवान होंगे, और केवल तभी समझेंगे कि हम मुक्ति के मार्ग पर काफी दूर तक अग्रसर हो आये हैं। इससे पहले तो हम मशीन मात्र हैं।

ज्ञानी व्यक्ति स्वाधीन होना चाहता है। वह जानता है कि विषय-भोग निस्सार हैं और सुख-दुःखों का कोई अन्त नहीं है। दुनिया के असंख्य धनवान नये सुख ढूँढने में लगे हैं, पर जो सुख उन्हें मिलते हैं, वे पुराने हो जाते हैं और वे नये सुख की कामना करते हैं। हम देखते हैं कि नाडियों को क्षण भर गुदगुदाने के लिये प्रतिदिन कैसे नये नये मूर्खतापूर्ण आविष्कार किये जा रहे हैं और उसके बाद कैसी 'प्रतिक्रिया' होती है? अधिकांश लोग तो भेड़ों के झुण्ड के समान हैं यदि पहली गड्ढे में गिरती है, तो पीछे की बाकी सब भेडें भी गिरकर अपनी गर्दन तोड़ लेती हैं। इसी तरह समाज का कोई मुखिया जब कोई बात कर बैठता है, दूसरे लोग भी बिना सोचे-समझे उसका अनुकरण करने लगते हैं।

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