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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका

वीरता

मित्रो! पहले मनुष्य बनो, तब देखोगे कि बाकी सभी चीजें स्वयं ही तुम्हारा अनुसरण करेंगी। आपस के घृणित द्वेष-भाव को - कुत्ते के सरीखे परस्पर झगड़ना तथा भूँकना छोड्कर भले उद्देश्य, सदुपाय, सत्साहस एवं सच्ची वीरता का अवलम्बन करो। तुमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है, तो अपने पीछे कुछ स्थायी चिह्न छोड़ जाओ –

तुलसी आये जगत् में, जगत् हँसे तुम रोय।
ऐसी करनी कर चलो, आप हँसे जग रोय।।

अगर ऐसा कर सको, तभी तुम मनुष्य हो, अन्यथा तुम किस काम के हो?

''दुनिया चाहे जो कहे, मुझे क्या परवाह! मैं तो अपना कर्तव्य-पालन करता चला जाऊँगा'' - यही वीरों की बात है। ''वह क्या कहता है'' या ''क्या लिखता है'' यदि ऐसी ही बातों पर कोई रात-दिन ध्यान देता रहे, तो संसार में कोई महान् कार्य नहीं हो सकता। क्या तुमने यह श्लोक सुना है -

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीरा:।।

नीतिकुशल लोग तुम्हारी निन्दा करें या स्तुति, लक्ष्मी तुम पर कृपालु हो या जहाँ खुशी चली जायँ, तुम्हारी मृत्यु आज हो या अगले युग में, परन्तु न्यायपथ से कभी विचलित न होना। कितने ही तूफान पार करने पर मनुष्य शान्ति के राज्य में पहुँचता है। जिसे जितना बड़ा होना है, उसके लिये उतनी ही कठिन परीक्षा रखी गयी है। परीक्षा रूपी कसौटी पर उसका जीवन कसने पर ही जगत् ने उसको महान् कहकर स्वीकार किया है। जो भीरु या कापुरुष होते हैं, वे समुद्र की लहरों को देखकर अपनी नाव को किनारे पर ही रखते हैं। जो महावीर होते हैं, वे क्या किसी बात पर ध्यान देते हैं? ''जो कुछ होना है सो हो, मैं अपना ईष्टलाभ करके ही रहूँगा'' - यही यथार्थ पुरुषकार है। इस पुरुषकार के हुए बिना कोई भी दैवी सहायता तुम्हारी जड़ता को दूर नहीं कर सकती।'

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