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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


इस जीवन में जो सर्वदा हताशचित्त रहते हैं, उनसे कोई भी कार्य नहीं हो सकता। वे जन्म-जन्मान्तर में 'हाय, हाय' करते हुए आते हैं और चले जाते हैं। वीरभोग्या वसुन्धरा अर्थात् वीर लोग ही वसुन्धरा का भोग करते हैं यह वचन नितान्त सत्य है।

वीर बनो, सर्वदा कहो, 'अभी:'  - मैं निर्भय हूँ।

सबको सुनाओ - 'माभै: ' - भय न करो।

भय ही मृत्यु है, भय ही पाप, भय ही नरक, भय ही अधर्म तथा भय ही व्यभिचार है। संसार में जो भी नकारात्मक या बुरे भाव हैं, वे सब इस भयरूप शैतान से उत्पन्न हुए हैं। इस भय ने ही सूर्य के सूर्यत्व को, वायु के वायुत्व को, यम के यमत्व को अपने अपने स्थान पर रख छोड़ा है, अपनी अपनी सीमा से किसी को बाहर नहीं जाने देता।

यह शरीर धारणकर तुम कितने ही सुख-दुःख तथा सम्पद-विपद की तरंगों में बहाये जाओ, पर ध्यान रखना ये सभी क्षणस्थायी हैं। इन सबको अपने ध्यान में भी नहीं लाना।

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