ई-पुस्तकें >> व्यक्तित्व का विकास व्यक्तित्व का विकासस्वामी विवेकानन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 94 पाठक हैं |
मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका
क्या तुम अपने भाई - मनुष्य जाति - को प्यार करते हो? ईश्वर को कहाँ ढूँढने चले - ये सब गरीब, दुखी, दुर्बल क्या ईश्वर नहीं हैं? पहले इन्हीं की पूजा क्यों नहीं करते? गंगा-तट पर कुआँ खोदने क्यों जाते हो? प्रेम की असाध्य-साधिनी शक्ति पर विश्वास करो। इस झूठी जगमगाहट वाले नाम-यश की परवाह कौन करता है? समाचार-पत्रों में क्या छपता है, क्या नहीं, इसकी मैं कभी खबर ही नहीं लेता? क्या तुम्हारे पास प्रेम है? तब तुम सर्वशक्तिमान हो। क्या तुम पूर्णत: निस्वार्थ हो? यदि हाँ, तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है? चरित्र की ही सर्वत्र विजय होती है। भगवान ही समुद्र के तल में भी अपनी सन्तानों की रक्षा करते हैं। तुम्हारे देश के लिये वीरों की आवश्यकता है - वीर बनो।
व्यष्टि (व्यक्ति) का जीवन समष्टि (समाज) के जीवन पर निर्भर है, समष्टि के सुख में व्यष्टि का सुख निहित है, समष्टि के बिना व्यष्टि का अस्तित्व ही असम्भव है, यही अनन्त सत्य जगत् का मूल आधार है। अनन्त समष्टि के साथ सहानुभूति रखते हुये उसके सुख में सुख और उसके दुःख में दुःख मान-कर धीरे-धीरे आगे बढ़ना ही व्यष्टि का एकमात्र कर्तव्य है। और कर्तव्य ही क्यों? इस नियम का उल्लंघन करने से उसकी मृत्यु होती है और पालन करने से वह अमर होता है।
यदि इस संसाररूपी नरककुण्ड में एक दिन के लिये भी किसी व्यक्ति के चित्त में थोड़ा-सा आनन्द एवं शान्ति प्रदान की जा सके, तो उतना ही सत्य है, आजन्म मैं तो यही देख रहा हूँ - बाकी सब कुछ व्यर्थ की कल्पनाएँ हैं।
|