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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


मनुष्य के लिए जिस मनुष्य का जी नहीं दुखता, वह अपने को मनुष्य कैसे कहता है?

कर्तव्य का पालन शायद ही कभी मधुर होता हो। कर्तव्य-चक्र तभी हल्का और आसानी से चलता है, जब उसके पहियों में प्रेम रूपी चिकनाई लगी रहती है, अन्यथा वह एक अविराम घर्षण मात्र है। यदि ऐसा न हो, तो 'माता-पिता अपने बच्चों के प्रति, बच्चे अपने माता-पिता के प्रति, पति अपनी पत्नी के प्रति तथा पत्नी अपने पति के प्रति अपना अपना कर्तव्य कैसे निभा सकेंगे? क्या इस घर्षण के उदाहरण हमें अपने दैनिक जीवन में सदैव दिखायी नहीं देते? कर्तव्य-पालन की मधुरता प्रेम ही है, प्रेम का विकास केवल स्वतंत्रता में ही होता है। पर सोचो तो जरा, इन्द्रियों का, क्रोध का, ईर्ष्या का तथा मनुष्य के जीवन में प्रतिदिन होनेवाली अन्य सैकड़ों छोटी-छोटी बातों का गुलाम होकर रहना क्या स्वतंत्रता है? अपने जीवन के इन सारे क्षुद्र संघर्षों में सहिष्णु बने रहना ही स्वतंत्रता की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। स्त्रियाँ स्वयं अपने चिड़चिड़े तथा ईर्ष्यापूर्ण स्वभाव की गुलाम होकर अपने पतियों को दोष दिया करती हैं। वे दावा करती हैं कि हम स्वाधीन हैं; पर वे नहीं जानतीं कि ऐसा करके वे स्वयं को निरी गुलाम सिद्ध कर रही हैं और यही हाल उन पतियों का भी है, जो सदा अपनी स्त्रियों में दोष ही देखा करते हैं।

प्रेम कभी निष्फल नहीं होता मेरे बच्चे, कल हो या परसों या युगों बाद, पर सत्य की विजय अवश्य होगी। प्रेम ही मैदान जीतेगा।

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