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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका

मानव की दिव्यता

'हे अमृत के पुत्रो!'
- कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है यह!

बन्धुओ! इसी मधुर नाम - 'अमृत के अधिकारी' से तुम्हें सम्बोधित करूं, तुम मुझे इसकी अनुमति दो। निश्चय ही हिन्दू तुम्हें पापी कहना अस्वीकार करता है। तुम तो ईश्वर की सन्तान हो, अमर आनन्द के भागी हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो।

तुम भला पापी? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है।

तुम उठो! हे सिंहो, आओ और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो कि तुम भेड़ हो। तुम हो अमर आत्मा, मुक्त आत्मा, नित्य और आनन्दमय!

तुम जड़ नहीं हो, तुम शरीर नहीं हो; जड़ तो तुम्हारा दास है, न कि तुम जड़ के दास हो।'

(यहाँ तक कि) यह संसार, यह शरीर और मन अन्धविश्वास है। तुम हो कितने असीम आत्मा! और टिमटिमाते हुए तारों से छले जाना! यह लज्जास्पद दशा है। तुम दिव्य हो; टिमटिमाते हुए तारों का अस्तित्व तो तुम्हारे कारण है।

हर एक वस्तु जो सुन्दर, बलयुक्त तथा कल्याणकारी है और मानव प्रकृति में जो कुछ भी शक्तिशाली है, वह सब उसी दिव्यता से उद्भूत है। यह दिव्यता यद्यपि बहुतों में अव्यक्त रहती है, मूलत: मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं है, सभी समान रूप से दिव्य हैं। यह ऐसा ही है, जैसे पीछे एक अनन्त समुद्र है और उस अनन्त समुद्र में हम और तुम लोग इतनी सारी लहरें हैं और हममें से हर एक उस अनन्त को बाहर व्यक्त करने के निमित्त प्रयत्नशील है। अत: हममें से हर एक को वह सत् चित् तथा आनन्द रूपी अनन्त समुद्र अव्यक्त रूप से, जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में तथा स्वरूपतः प्राप्त है।

उस दिव्यता की अभिव्यक्ति की न्यूनाधिक शक्ति से ही हम लोगों में विभिन्नता उत्पन्न होती है।

आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है और स्वयं पर ही होने से मनुष्य ईश्वर बन जाता है।

अपने आभ्यन्तरिक ब्रह्मभाव को प्रकट करो और उसके चारों ओर सब कुछ समन्वित होकर विन्यस्त हो जायेगा।

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