ई-पुस्तकें >> सूरज का सातवाँ घोड़ा सूरज का सातवाँ घोड़ाधर्मवीर भारती
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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
बादल छाए हुए थे और बहुत ही सुहावना मौसम था। सडक़ों पर जगह-जगह पानी जमा था, जिनमें चिड़ियाँ नहा रही थीं। एलनगंज में अपना काम निबटा कर दोनों पैदल टहलने चल दीं। थोड़ी ही दूर आगे बाँध था, जिसके नीचे से एक पुरानी रेल की लाइन गई थी जो अब बंद पड़ी थी। लाइनों के बीच में घास उग आई थी और बारिश के बाद घास में लाल हीरों की तरह जगमगाती हुई बीरबहूटियाँ रेंग रही थीं। दोनों सखियाँ वहीं बैठ गईं - एक बीरबहूटी रह-रह कर उस जंग खाए हुए लोहे की लाइन को पार करने की कोशिश कर रही थी और बार-बार फिसल कर गिर जाती थी। लिली थोड़ी देर उसे देखती रही और फिर बहुत उदास हो कर कम्मो से बोली, 'कम्मो रानी! अब उस पिंजरे से निस्तार नहीं होगा, कहाँ ये घूमना-फिरना, कहाँ तुम।' कम्मो जो एक घास की डंठल चबा रही थी, तमक कर बोली, 'देखो लिल्ली घोड़ी! मेरे सामने ये अँसुआ ढरकाने से कोई फायदा नहीं। समझीं! हमें ये सब चोचला अच्छा नहीं लगता। दुनिया की सब लड़कियाँ तो पैदा होके ब्याह करती हैं, एक तुम अनोखी पैदा हुई हो क्या? और ब्याह के पहले सभी ये कहती हैं, ब्याह के बाद भूल भी जाओगी कि कम्मो कंबख्त किस खेत की मूली थी!'
लिली कुछ नहीं बोली, खिसियानी-सी हँसी हँस दी। दोनों सखियाँ आगे चलीं। धीरे-धीरे लिली बीरबहूटियाँ बटोरने लगी। सहसा कम्मो ने उसे एक झाड़ी के पास पड़ी साँप की केंचुल दिखाई, फिर दोनों एक बहुत बड़े अमरूद के बाग के पास आईं और दो-तीन बरसाती अमरूद तोड़ कर खाए जो काफी बकठे थे, और अंत में पुरानी कब्रों और खेतों में से होती हुई वे एक बहुत बड़े-से पोखरे के पास आईं जहाँ धोबियों के पत्थर लगे हुए थे। केंचुल, बीरबहूटी, अमरूद और हरियाली ने लिली के मन को एक अजीब-सी राहत दी और रो-रो कर थके हुए उसके मन ने उल्लास की एक करवट ली। उसने चप्पल उतार दी और भीगी हुई घास पर टहलने लगी। थोड़ी देर में लिली बिलकुल दूसरी ही लिली थी, हँसी की तरंगों पर धूप की तरह जगमगाने वाली, और शाम को पाँच बजे जब दोनों घर लौटीं तो उनकी खिलखिलाहट से मुहल्ला हिल उठा और लिली को बहुत कस कर भूख लग आई थी।
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