ई-पुस्तकें >> सूरज का सातवाँ घोड़ा सूरज का सातवाँ घोड़ाधर्मवीर भारती
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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
कम्मो सुबह ही आ गई थी। आज लिली को जेवर पहनाया जानेवाला था, शाम को सात बजे लोग आनेवाले थे, सास तो थी ही नहीं, ससुर आनेवाले थे और कम्मो, जो लिली की घनिष्ट मित्र थी, पर उस घर को सजाने का पूरा भार था और लिली थी कि कम्मो के कंधे पर सिर रख कर इस तरह बिलखती थी कि कुछ पूछो मत!
कम्मो बड़ी यथार्थवादिनी, बड़ी ही अभावुक लड़की थी। उसने इतनी सहेलियों की शादियाँ होते देखी थीं। पर लिली की तरह बिना बात के बिलख-बिलख कर रोते किसी को नहीं देखा था। जब विदा होने लगे तो उस समय तो रोना ठीक है, वरना चार बड़ी-बूढ़ियाँ कहने लगती हैं कि देखो! आजकल की लड़कियाँ हया-शरम धो के पी गई हैं। कैसी ऊँट-सी गरदन उठाए ससुराल चली जा रही हैं। अरे हम लोग थे कि रोते-रोते भोर हो गई थी और जब हाथ-पाँव पकड़ के भैया ने डोली में ढकेल दिया तो बैठे थे। एक ये हैं! आदि।
लेकिन इस तरह रोने से क्या फायदा और वह भी तब जब माँ या और लोग सामने न हों। सामने रोए तो एक बात भी है! बहरहाल कम्मो बिगड़ती रही और लिली के आँसू थमते ही न थे।
कम्मो ने काम बहुत जल्दी ही निबटा लिया लेकिन वह घर में कह आई थी कि अब दिन-भर वहीं रहेगी। कम्मो ठहरी घूमने-फिरनेवाली कामकाजी लड़की। उसे खयाल आया कि उसे एलनगंज जाना है, वहाँ से अपनी कढ़ाई की किताबें वगैरह वापस लानी हैं, और फिर उसे एक क्षण चैन नहीं पड़ा। उसने लिली की माँ से पूछा, जल्दी से लिली को मार-पीट कर जबरदस्ती तैयार किया और दोनों सखियाँ चल पड़ीं।
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