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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


'हूँ तो नहीं, कभी-कभी हो जाता हूँ! लिली, एक अँग्रेजी की कविता है - 'ए लिली गर्ल नॉट मेड फॉर दिस वर्ल्डस पेन!' एक फूल-सी लड़की जो इस दुनिया के दु:ख-दर्द के लिए नहीं बनी। लिली यह कवि तुम्हें जानता था क्या? 'लिली' - तुम्हारा नाम तक लिख दिया है।'

'हूँ! हमें तो जरूर जानता था। तुम्हें भी एक नई बात रोज सूझती रहती है।'

'नहीं! देखो उसने यहाँ तक तो लिखा है - 'एंड लांगिंग आइज हाफ वेल्ड विद स्लंबरस टीयर्स, लाइक ब्लूएस्ट वाटर्स सोन थ्रू मिस्ट्स, ऑफ रेन' - लालसा-भरी निगाहें, उनींदे आँसुओं से आच्छादित जैसे पानी की बौछार में धुँधली दीखने वाली नील झील...'

सहसा तड़प कर दूर कहीं बिजली गिरी और लिली चौंक कर भागी और बदहवास माणिक के पास आ गिरी। दो पल तक बिजली की दिल दहला देनेवाली आवाज गूँजती रही और लिली सहमी हुई गौरैया की तरह माणिक की बाँहों के घेरे में खड़ी रही। फिर उसने आँखें खोलीं, और झुक कर माणिक के पाँवों पर दो गरम होंठ रख दिए। माणिक की आँखों में आँसू आ गए। बाहर बारिश धीमी पड़ गई थी। सिर्फ छज्जों से, खपरैलों से टप-टप कर बूँदें चू रही थीं। हल्के-हल्के बादल अँधेरे में उड़े जा रहे थे।

सुबह लिली जागी - लेकिन नहीं, जागी नहीं - लिली को रात-भर नींद आई नहीं थी। उसे पता नहीं कब माँ ने खाने के लिए जगाया, उसने कब मना कर दिया, कब और किसने उसे पलँग पर लिटाया - उसे सिर्फ इतना याद है कि रात-भर वह पता नहीं किसके पाँवों पर सिर रख कर रोती रही। तकिया आँसुओं से भीग गया था, आँखें सूज आई थीं।

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