ई-पुस्तकें >> सूरज का सातवाँ घोड़ा सूरज का सातवाँ घोड़ाधर्मवीर भारती
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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
किसी मानवोपरि, देवताओं के संगीत से मुग्ध, भोली हिरणी की तरह लिली ने एक क्षण माणिक की ओर देखा और उनकी हथेलियों में मुँह छिपा लिया।
'वाह! उधर देखो लिली!' माणिक ने दोनों हाथों से लिली का मुँह कमल के फूल की तरह उठाते हुए कहा। बाहर गली की बिजली पता नहीं क्यों जल नहीं रही थी, लेकिन रह-रह कर बैंजनी रंग की बिजलियाँ चमक जाती थीं और लंबी पतली गली, दोनों ओर के पक्के मकान, उनके खाली चबूतरे, बंद खिड़कियाँ, सूने बारजे, उदास छतें, उन बैंजनी बिजलियों में जाने कैसे जादू के से, रहस्यमय-से लग रहे थे। बिजली चमकते ही अँधेरा चीर कर वे खिड़की से दीख पड़ते, और फिर सहसा अंधकार में विलीन हो जाते और उस बीच के एक क्षण में उनकी दीवारों पर तड़पती हुई बिजली की बैंजनी रोशनी लपलपाती रहती, बारजों की कोरों से पानी की धारें गिरती रहतीं, खंभे और बिजली के तार काँपते रहते और हवाओं में बूँदों की झालरें लहराती रहतीं। सारा वातावरण जैसे बिजली के एक क्षीण आघात से काँप रहा था, डोल रहा था।
एक तेज झोंका आया और खिड़की के पास खड़ी लिली बौछार से भीग गई, और भौंहों से, माथे से बूँदें पोंछती हुई हटी तो माणिक बोले, 'लिली वहीं खड़ी रहो, खिड़की के पास, हाँ बिलकुल ऐसे ही। बूँदें मत पोंछो। और लिली, यह एक लट तुम्हारी भीग कर झूल आई है कितनी अच्छी लग रही है!'
लिली कभी चुपचाप लजाती हुई खिड़की के बाहर, कभी लजाती हुई अंदर माणिक की ओर देखती हुई बौछार में खड़ी रही। जब बिजलियाँ चमकतीं तो ऐसा लगता जैसे प्रकाश के झरने में काँपता हुआ नील कमल। पहले माथा भीगा - लिली ने पूछा, 'हटें!' माणिक बोले, 'नहीं!' माथे से पानी गरदन पर आया, बूँदें उसके गले में पड़ी सुनहली मटरमाला को चूमती हुई नीचे उतरने लगीं, वह सिहर उठी। 'सरदी लग रही है?' माणिक ने पूछा। एक अजब-से अल्हड़ आत्म-समर्पण के स्वर में लिली बोली, 'नहीं, सरदी नहीं लग रही है! लेकिन तुम बड़े पागल हो!'
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