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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


माणिक ने धीरे-से उसी के आँचल से उसके आँसू पोंछ दिए। बोले, 'जाओ, मुँह धो आओ! चलो!' लिली मुँह धो कर आ गई। माणिक बैठे हुए रेडियो की सुई इस तरह घुमा रहे थे कि कभी झम से दिल्ली बज उठता था, कभी लखनऊ की दो-एक अस्फुट संगीतलहरी सुनाई पड़ जाती थी, कभी नागपुर, कभी कलकत्ता, (इलाहाबाद में सौभाग्य से तब तक रेडियो स्टेशन था ही नहीं!) लिली चुपचाप बैठी रही, फिर उठ कर उसने रेडियो ऑफ कर दिया और आकुल आग्रह-भरे स्वर में बोली, 'माणिक, कुछ बात करो! मन बहुत घबरा रहा है।'

माणिक हँसे और बोले, 'अच्छा आओ बात करें, पर हमारी लिली जितनी अच्छी बात कर लेती है, उतनी मैं थोड़े ही कर पाता हूँ। लेकिन खैर! तो तुम्हारी कम्मो की समझ में तसवीर नहीं आई!'

'उहूँक!'

'कम्मो बड़ी कुंदजेहन है, लेकिन कोशिश हमेशा यही करती है कि सब काम में टाँग अड़ाए।'

'तुम्हारी जमुना से तो अच्छी ही है!'

जमुना के जिक्र पर माणिक को हँसी आ गई और फिर आग्रह से, बेहद दुलार और बेहद नशे से लिली की ओर देखते हुए बोले, 'लिली, तुमने स्कंदगुप्त खतम कर डाली!'

'हाँ।'

'कैसी लगी?'

लिली ने सिर हिला कर बताया कि बहुत अच्छी लगी। माणिक ने धीरे से लिली का हाथ अपने हाथों में ले लिया और उसकी रेखाओं पर अपने काँपते हुए हाथ को रख कर बोले, 'मैं चाहता हूँ मेरी लिली उतनी ही पवित्र, उतनी ही सूक्ष्म, उतनी ही दृढ़ बने जितनी देवसेना थी। तो लिली वैसी ही बनेगी न!'

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